Thursday, 26 July 2012

ये इश्क नहीं आसाँ.....!

टीवी मीडिया के क्षेत्र में कदम रखने वाले अनगिनत छात्र-छात्राओं का सपना एंकर या रिपोर्टर बनना ही होता है. ऐसा क्यों है इसका कारण तो मैं भी नहीं समझ सका, लेकिन उनकी यही ख्वाईश उन्हें असफलता के दरवाज़े पर ला खडा करती है. उन्हें पत्रकारिता की चुनौतियों या इस राह में आने वाली मुश्किलों से कोई वास्ता नहीं होता है. इस क्रम में नया कुछ सीखने-समझने और ज्ञान बढाने की ललक भी ऐसे उम्मीदवारों में कम ही देखने को मिलती है. वो तो बस रातों-रात बरखा दत्त या दीपक चौरसिया बन जाना चाहते हैं. शीर्ष पर पहुंचे इन लोगों की संघर्ष गाथा से भी उनका कोई वास्ता नहीं होता. ज़ाहिर सी बात है, हवाई किले हकीकत में तब्दील नहीं हो पाते. आईबीएन7 के मैनिजिंग एडिटर आशुतोष जब नौकरी की तलाश में बनारस से दिल्ली आये थे तो उन्हें भी कईं जगह से निराश होना पडा था. लेकिन जिन संपादकों ने उन्हें नौकरी देने से इनकार कर दिया था आज वो ही लोग उन्हें सम्मान देते हैं. क्योंकि आशुतोष का सपना पत्रकार बनने का था ना कि एंकर या रिपोर्टर बनकर स्क्रीन पर चमकने का ख़्वाब उन्होंने पाला था!


आज जब हिन्दी और अंग्रेज़ी के सैंकड़ों न्यूज़ चैनल आ गए हैं और उनमें अनगिनत एंकर और रिपोर्टर काम कर रहे हैं बावजूद इसके वो ही पुराने नाम अपनी पहचान बरकरार रखे हैं. बाकी चेहरों को कोई पहचानता तक नहीं है, जबकि वो दिन भर टीवी पर न्यूज़ पढ़ रहे होते हैं, और रिपोर्टिंग कर रहे होते हैं, लेकिन वो चहरे फिर भी अपना प्रभाव छोड़ने में असफल ही साबित हुए हैं. और पुराने सितारों की चमक बरकरार है. टीवी पत्रकारिता के दूसरे दशक में दाखिल होने के बाद भी नए चहरे अपनी पहचान नहीं बना पाए हैं, इतने समय में कोंई दूसरा दीपक चौरसिया या पुण्यप्रसून वाजपयी, करन थापर, राजदीप, आशुतोष या विनोद दुआ क्यों नहीं बन पाया? टीवी पत्रकारिता में महिलाओं की संख्या पुरूषों से भी ज़्यादा है, और उन्हें यहाँ बराबरी के अवसर भी मौजूद हैं फिर भी महिलाओं में कोंई नया चेहरा अपनी पहचान नहीं बना पाया.

इन सबके बीच एक नए चहरे का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जिसने रिपोर्टिंग और प्रस्तुति की ख़ास शैली के चलते धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाई है. 'रवीश कुमार' को कुछ साल पहले तक कम ही लोग जानते थे, लेकिन आज ये नाम टीवी दर्शकों के लिए अपना सा है. ये वो लोग हैं जो कभी भी आपको टेली-प्रिंटर पढ़ते नज़र नहीं आएँगे. हर खबर पर इनका अपना नज़रिया होता है, और हर खबर का एंकर इंट्रो ये खुद लिखते हैं. इसलिए स्क्रीन पर ये वाचाल और क्रियाशील दिखाई देते हैं. इनकी हर खबर की प्रस्तुति सजीव होती है. जो दर्शकों से सीधा-संवाद स्थापित कर लेती है. ये लोग भी बेहद साधारण हैं लेकिन ये सभी असाधारण इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि इन्होने अपने ज्ञान को परिधि में नहीं बांधा है. बल्कि हर-पल उसे विस्तारित करने की कोशिश में लगे रहते हैं.

अगर भारत में पत्रकारिता का इतिहास उठाकर देखें तो पत्रकारिता में ऐसे ही लोग सफल हुए हैं जो देश और समाज से सीधा संवाद रखते थे. आज़ादी से पहले हमारे यहाँ राजा राममोहन राय, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, एनी बेसेंट, और सरोजनी नायडू जैसी अनगिनत महान विभूतियों ने पत्रारिता की है. और कईं पत्र-पत्रकाओं के सम्पादक के रूप में काम किया है. ऐसे में इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि पत्रकारों से भारतीय मानस की उम्मीदें कुछ ज़्यादा हैं. इसे समझने के लिए भारत में पत्रकारिता के इतिहास के पन्ने पलटना बेहद ज़रूरी है.

स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है - इसे हम लेकर रहेंगे, का नारा देने वाले स्वंतत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का निधन जब 31 जुलाई 1920 को हुआ तो मोहनदास करमचंद गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ली और असहयोग आंदोलन का शुभारंभ हुआ । हंटर आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप कार्यवाही पर देश भर में जो आजादी की लहर चली उससे उनके आंदोलन को बल मिला। गांधी जी अपने कार्यक्रम को राष्ट्रव्यापी बनाने में समाचार पत्रों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे। कलकत्ता से भारत मित्र, कलकत्ता समाचार और विश्व बंधु का प्रकाशन होता था। कानपुर से प्रताप का और इलाहाबाद से भविष्य का।

गांधी जी के अहिंसा त्याग और सत्याग्रह के सिद्धांत की सफलता ने भारत का मन मोह लिया था - सारा जनमत गांधी जी के साथ था और अनेक नए शक्तिशाली समाचार पत्रों का प्रकाशन भी आरंभ हुआ। जबलपुर, खंडवा से कर्मवीर का कलकत्ता से स्वतंत्र का, काशी से आज का और कानपुर से वर्तमान का। इसी बीच पंजाब में अमृतसर, लाहौर और गुजरावाला में कलकत्ता में गुजरात के अहमदाबाद, वीरम गांव, नडियाड में जो हिंसक घटनाएं हुई जिनसे गांधी जी को अत्यधिक दुख हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ समाचार छापने पर अधिकांश समाचार पत्र जप्त कर दिए गये। प्रेस बंद कर दिए गए। उन पर जुर्माना कर दिया गया । जुर्माना न पटाने पर जेल की सजा दी गई। अनेक पत्र पत्रिकाएं भूमिगत हो गई । उस समय जितना महत्व गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में कानपुर से निकलने वाले पत्र प्रताप का था उतना ही महत्व मध्य प्रांत में कर्मवीर का था। कर्मवीर के संपादक थे पं. माखनलाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा। उन्होंने मातृभूमि और मनुष्यता पर बलि होने का आव्हान किया और राजद्रोह के अपराध में उन्हें सजा हो गई । कर्मवीर के नाम के प्रेरणा उन्हें उस नाम से मिली जिसके द्वारा उस समय की जनता गांधी जी को संबोधित करती थी। कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा । 63 बार उनके घर और समाचार के दफ्तर की तलाशी ली गई। वर्धा के सुमति और नागपुर के संकल्प के संपादकों को परेशान किया गया धमकी दी गई। फिर दिल्ली से अर्जुन निकला, कलकत्ता से मतवाला और नागपुर से प्रणवीर और श्री शारदा।

महात्मागांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाने का समर्थन करने के लिए मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ जिससे गांधी जी के आंदोलन को बल मिला साथ ही हिंदी की श्री वृद्धि हुई। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती, दुलारे लाल भार्गव द्वारा लखनऊ से प्रकाशित माधुरी रामरख सिंह सहगल द्वारा इलाहाबाद से प्रकाशित चांद तथा उपन्सास सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा वाराणसी से प्रकाशित हंस ने गांधी के सत्य और अहिंसा पर हिंदी का अभिषेक किया। भार्गव ने एक दूसरी पत्रिका सुधा निकाली और रामवृक्ष बेनीपुरी ने वीणा । कुछ पत्रिकाएं सरस्वती की परंपरा से हटकर राजनीतिक विषयों पर भी टिप्पणियां तथा साहित्यिक कृतियां जैसे कविताएं, कहानियां, लेख, निबंध, नाटक आदि भी प्रकाशित करती थीं।

क्रांतिकारियों के दमन तथा खुदीराम बोस, सरदार भगत सिंह को फांसी की सजा, आजाद की हत्या के कारण समाचार पत्र क्रांतिकारियों के साहस और वीरता के गीत गा रहे थे । फांसी पर चढ़ने वाले युवकों के गुण गा रहे थे । स्वराज ने अपने संपादकीय लेख में शंखनाद किया कि देशवासी निद्रा से जागें और देखें कि कितनी बुरी तरह से विदेशी अंग्रेजी ने इस देश का शोषण किया है ।

समाचार पत्रों में संपादकीय लेख लिखे जाने लगे- रोलेट एक्ट पर, पंजाब की दमन नीति पर, जलिया वाला बाग पर, खिलाफत आंदोलन पर, अली बंधुओं एवं अन्य की गिरफ्तारी पर, अहिंसात्मक सत्याग्रह पर, गांधी जी की जेल यात्रा पर, उनकी प्रार्थना सभाओं पर, विदेशी वस्त्रों की होली जलाने पर, चौरा चौरी कांड पर, नमक सत्याग्रह पर, युवराज प्रिंस आफ वेल्स के आगमन के बहिष्कार पर, इस तरह समाचार पत्र राष्ट्रीयता के प्रतीक बन गए ।

भूमिगत समाचार पत्रों के नाम भी खूब थे- चिंगारी, बवंडर, चंद्रिका, रणडंका, शंखनाद, ज्वालामुखी, तूफान, रण चंद्रिका, जन संग्राम बोल दे धावा आदि । उन दिनों पायनियर और लीडर आदि एक-एक आने में, आज आदि दो-दो पैसे में बिकते थे । हाकर चिल्लाता था- ब्रिटिश सरकार की छाती कूटने वाला अखबार इनडिपेंडेंस डे लो । अंतिम चरण में 1942 के भारत छोड़ो करो या मरो आंदोलन के समय प्रेस इमरजेंसी अधिनियम के अंतर्गत समाचार पत्रों को कुचलने का भरसक प्रयास किया गया । दिल्ली के हिंदुस्तान और कितने ही अन्य समाचार पत्र बंद हो गए । देश के प्रस्तावित विभाजन के साथ 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली और समाचार पत्रों का गांधी जी को भरपूर समर्थन मिला उस समय चार प्रमुख दैनिक समाचार पत्र थे, विश्व मित्र, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान और राज । सभी ने उस दिन के अपने अग्रलेख में सारे देशवासियों की भावनाओं को चित्रित करते हुए लिखा-अब वह दिन दूर नहीं जब भारत सभी दिशाओं में उन्नति करता हुआ विश्व का महानतम लोकतंत्र बन जाएगा और विश्व में उसका महत्वपूर्ण स्थान होगा ।

इतिहास के ये पन्ने देश में पत्रकारिता के स्वर्णिम काल की गवाही दे रहे हैं. समय चलता रहता है और वक्त इतिहास में तब्दील हो जाता है, इसलिए इतिहास तो अब भी बन रहा है. टीवी पत्रकारिता इस इतिहास का नया अध्याय है, सवाल ये है कि इस इतिहास में जो चहरे अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं क्या वो इतिहास के उन पुराने चेहरों की बराबरी कर पाएंगे?

Wednesday, 26 October 2011

हंगामा क्यों है बरपा ?

Yogesh gulati
पानी सर के ऊपर से गुजर रहा है. छुरी अब अपनी ही गर्दन पर आ टिकी है. इसलिए अब इस भस्मासुर से निपटने की कवायद तेज़ हो चली है. हंगामा इस बात को लेकर है कि  न्यूज़ चैनल सरकार को अस्थिर कर रहे हैं. हल्ला मचा है कि  मीडिया अपनी आजादी का दुरुपयोग कर रहा है. और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उल-झलूल कार्यक्रम दिखाकर देश और समाज को गुमराह कर रहा है. नौकरशाहों से लेकर सरकार तक इस बात पर मंथन कर रही है कि शीला कैसे जवान हुई और मुन्नी कैसे बदनाम हो गयी? सरकार को चिंता इस बात को लेकर होने लगी है कि, इस बात का खबरों से क्या  ताल्लुक है?

कुछ लोगों के लिए ये एक अच्छा संकेत हो सकता है कि देर से ही सही हमारी सरकार नींद से जागी तो सही. और उसने सरकारी बाबुओं को इस 'भस्मासुर' पर लगाम कसने का फरमान भी जारी कर ही दिया. अब मंत्रालय में बैठ कर सरकारी बाबू न्यूज़ चैनलों पर नकेल कसने के लिए रणनीति तैयार कर रहे हैं. ये रणनीति कितनी कारगर होगी इसका पहला परीक्षण यूपी के चुनावों के दौरान हो जाएगा. नयी गाइडलाइन्स लगभग तैयार हो चुकी है. अब कार्यक्रम और विज्ञापन सहिंता के उल्लंघन का दोषी पाए जाने पर चैनल का लाइसेंस भी रद्द हो सकता है. यानि सरकार चैनलों पर तलवार लटकाने की पूरी तैयारी कर चुकी है.

दिलचस्प बात ये है कि जिस कार्यक्रम और विज्ञापन सहिंता की बात सरकार कर रही है उसकी जानकारी न्यूज़ चैनलों में काम करने वाले बहुत कम पत्रकारों को ही है. उनमें से भी बिरले ही केबल टीवी रेग्यूलेशन एक्ट-१९९५ की थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं. दिलचस्प बात ये भी है कि विज्ञापन सहिंता के मुताबिक एक घंटे के टीवी प्रोग्राम में १२ मिनट से ज़्यादा का कमर्शियल नहीं दिखाया जा सकता है. लेकिन कुछ न्यूज़ चैनल्स तो ३२ मिनट के विज्ञापन एक घंटे के प्रोग्राम में दिखाते हैं.
क्या हमारे नौकरशाहों को इस बात का इल्म नहीं है? ये बात हैरानी वाली हो सकती है कि न्यूज़ चैनल में काम करने वाले एडिटर्स को उस आचार सहिंता के बारे में कभी बताया ही नहीं जाता जिसका उल्लंघन होने पर चैनल का लाइसेंस तक रद्द किया जा सकता है. चैनल मालिकों को भी इस बात की चिंता कभी नहीं रही कि उनके चैनल पर दिखाए जा रहे प्रोग्राम कहीं आचार सहिंता का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं?  शायद यही कारण है कि खबरों पर लौटने के दावे करने वाले न्यूज़ चैनल्स बेधड़क आपत्तिजनक प्रोग्राम्स दिखा रहे हैं.

सा इसलिए क्योंकि टीआरपी की रेस में धड़ल्ले से इस आचार सहिंता का उल्लंघन होने के बावजूद मंत्रालय में बैठे हमारे सरकारी बाबूओं के कानों पर जून तक नहीं रेंगी. तो फिर इन कर्मठ बाबुओं की नींद अब कैसे टूट गयी? अब कैसे जाग गए हमारे नौकरशाह और क्यों उन्हें मीडिया पर लगाम कसने की इतनी जल्दी है? सरकार की जल्दबाजी इस बात से भी जाहिर होती है कि नई गाइडलाइन्स में ये भी जोड़ा गया है कि न्यूज़ चैनल्स के ज़रिये सरकार को 'अस्थिर' करने के प्रयास किए जा रहे हैं. यानि जब भस्मासुर ने शिव के सर पर हाथ रखने के लिए हाथ आगे बढाया तो शिव को इस बात का एहसास हो गया कि वो भस्मासुर को 'वरदान' देकर कितनी बड़ी भूल कर बैठे हैं. अचम्भा इस बात को लेकर है कि जब ये भस्मासुर समाज को निगल रहा था, यही भस्मासुर जब देश के मानस को जड़ता में तब्दील कर रहा था, यही भस्मासुर जब अंधविश्वास का तांडव रच रहा था तब शिव मुस्कुरा रहे थे? तब क्यों नहीं जागे शिव?

ब क्यों सोती रही हमारी सरकार जब यही मीडिया 'नागमणि' के किस्से ख़बरों में परोस रहा था, उस वक्त कहाँ थे हमारे विद्वान सरकारी बाबू जब किसी पंडित कुंजीलाल ने अपनी मौत की भविष्यवाणी की थी और देश भर के न्यूज़ चैनल्स ने मध्यप्रदेश के उस छोटे से गाँव को 'पीपली लाइव' में तब्दील कर दिया था. जब एलियंस धरती पर आकर आतंक मचा रहे थे, और दुनिया ख़त्म होने वाली थी. जब माया सभ्यता की भविष्यवाणियाँ चैनलों पर हेडलाइन बन रही थी, उस वक्त क्या कर रहा था हमारा सूचना और प्रसारण मंत्रालय जब छज्जे पर बिल्ली और मेंढक की शादी सबसे तेज़ कहे जाने वाले नॅशनल  न्यूज़ चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ बन रही थी. जादू-टोना, भूत-प्रेत, ज्योतिष, अंधविश्वास और दुनिया ख़त्म होने की भविष्यवाणियों के बीच पब्लिक बेचारी कन्फ्यूज़ हो रही थी.
   
गौर करने वाली बात ये है कि शीला रातों-रात ही जवान नहीं हो गयी? ना ही मुन्नी एक ही दिन में बदनाम हो गयी. इसके लिए शीला और मुन्नी ने बहुत पापड़ बेले हैं. राखी और मिका का वो किस-काण्ड, शीला और मुन्नी को आज इस मुकाम तक ले आया है. इसमें प्रोफ़ेसर बटुकनाथ और जूली की प्रेम कहानी ने भी अमूल्य योगदान दिया है. अब सवाल ये है कि जब ये सब रातों-रात नहीं हुआ. तो सरकार को अचानक इसकी इतनी फ़िक्र कैसे हो गयी. कैसे हमारे सरकारी बाबू अब आचार सहिंता के उल्लंघन पर लासेंस रद्द करने की बात कर रहे हैं? ये सब हुआ अन्ना के आन्दोलन की वजह से. जब अन्ना के आन्दोलन की खबरों की टीआरपी आनी शुरू हुई तो टीआरपी के लिए कुछ भी करने वाले न्यूज़ चैनलों ने २४ घंटे टीम अन्ना के कवरेज़ के लिए रिपोर्टर लगा दिए. इसका असर भी हुआ और जिन चैनलों ने अन्ना के आन्दोलन का कवरेज़ दिखाया उनकी टीआरपी में भारी उछल आ गया. जिसके चलते बाकी चैनल्स को भी अपनी गिरती टीआरपी संभालने के लिए अन्ना का कवरेज़ दिखाना मजबूरी बन गया. लेकिन इस आन्दोलन के  24x7 प्रसारण ने सरकार को बेचैन कर दिया. क्योंकि महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान जनता में सरकार के खिलाफ आक्रोश पैदा होने लगा था. और ये आक्रोश इस आन्दोलन को देख कर भड़क उठा. जनता में ये आम राय बनाने लगे थी कि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार और महंगाई पर लगाम कसने की बजाय उसे बढ़ावा दे रही है. वहीँ न्यूज़ चैनल्स के विश्लेषक-विद्वान भी मनमोहन सिंह को कमज़ोर पीएम के रूप में प्रचारित करने में लगे थे. ऐसा माहौल बन गया था मानो इस देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री संसद से निकलती रही है और कांग्रेस ही उसकी जननी है. बात यहीं तक रहती तो भी ठीक था.... लेकिन अब बात उससे भी आगे बढ़ चुकी थी और सोनिया और राहुल पर भी निशाना साधा जाने लगा था. ऐसे में सरकार का हरकत में आना ज़रूरी हो गया था.

यानि जब छुरी अपनी गर्दन पर आ गयी तो हमारी सरकार की नीद टूट ही गयी और उसे इस बात का एहसास हो गया कि पथभ्रष्ट मीडिया
सरकार को अस्थिर भी कर सकता है. इससे ये तो साफ़ हो जाता है कि सरकार को भी जनता और सारोकार से कोई मतलब नहीं है. उसे सिर्फ सत्ता से ही प्यार है. इसीलिये राखी से लेकर जूली तक और फिर शीला और मुन्नी के जवान और बदनाम होने के तमाम किस्सों-कहानियों और नाग-मणियों तक सरकार सोती रही. जब न्यूज़ चैनलों पर दुनिया ख़त्म होने की भविष्यवाणियाँ खबरों के रूप में परोसी जा रही थी, तब भी सरकार सोती रही. उसकी नींद तो केवल तब खुली जब उसकी सत्ता को महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण चुनौती मिलाने लगी. जब तक शीला और मुन्नी महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों से सरकार को बचाए हुए थी और खबरों के नाम पर जनता का मनोरंजन कर रही थी, तब तक सरकार को उनसे कोई शिकायत नहीं थी. लेकिन जब वो इस काम में नाकामयाब होने लगी तो सकरारी बाबुओं को आचार सहिंता की याद आ गयी. सच्चाई ये है कि सरकारी बाबू ये चाहते हैं कि शीला और मुन्नी खबरों के नाम पर भोली जनता को बहलाती रहे ताकि आम जनता की समस्याओं, महंगाई, भ्रष्टाचार, और घोटालों की तरफ लोगों का ध्यान ना जाए. महंगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसी बड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए क़ानून जन आकांशाओं के अनुरूप नहीं बल्कि कुछ जन प्रतिनिधियों की मर्जी के मुताबिक़ बने. मतलब साफ़ है, हमारे नेताओं की मंशा यही है कि सत्ता में आने के बाद सरकार को अपनी मर्जी से काम करने की पूरी छूट मिले चाहे इसके एवज़ में संवैधानिक मर्यादाओं का ही हनन क्यों ना होता रहे.

Tuesday, 16 November 2010

चुप क्यों हैं मनमोहन?

आज आखिर सुप्रीम कोर्ट ने भी ये सवाल पूछ ही लिया जो सवाल मेरे और मुझ जैसे कईं नासमझ हिंदुस्तानियों के दिमाग में लंबे समय से कौंध रहा था. अपनी पिछली पोस्ट में मैंने लगातार सामने आ रहे घोटालों पर प्रधानमंत्री की चुप्पी का ज़िक्र किया था. सुप्रीम कोर्ट ने 2 जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। अदालत ने पूछा है कि इस घोटाले में केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए राजा को लेकर उठने वाले सवालों का प्रधानमंत्री जवाब क्‍यों नहीं देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस घोटाले से जुड़ी जनता पार्टी के अध्‍यक्ष सुब्रमण्यम स्‍वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह सवाल उठाया। स्‍वामी ने अदालत में याचिका दायर कर राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने की मांग की थी। अदालत ने कहा कि प्रधानमंत्री की 'चुप्‍पी और निष्क्रियता' से हम हैरान-परेशान हैं।

स्वामी ने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर 2008 में ही प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी लेकिन प्रधानमंत्री इसका कोई जवाब नहीं दिया। कोर्ट ने इस पर कहा कि आखिर प्रधानमंत्री ने स्‍वामी की चिट्ठी का जवाब क्‍यों नहीं दिया। अदालत ने कहा कि सरकार को राजा के खिलाफ लग रहे सभी आरोपों का जवाब देना चाहिए। स्‍वामी की याचिका में सरकारी महकमे में हो रही 'गड़बड़ी' के कई उदाहरण पेश किए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पीएम ने इससे पहले राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी क्‍यों नहीं दी।

1.76 लाख करोड़ रुपये के गड़बड़झाला को लेकर कैग की रिपोर्ट आज संसद में पेश कर दी गई जिसमें राजा पर अंगुली उठाई गई है। इसमें प्रधानमंत्री को क्‍लीन चिट देते हुए कहा गया है कि राजा ने प्रधानमंत्री की सलाह को दरकिनार करते हुए स्‍पेक्‍ट्रम आवंटित किए। ऐसे में सरकार को घेरने के लिए विपक्षी दलों के हाथ 'ठोस हथियार' लग गया है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्‍यूरो (सीबीआई) भी राजा से पूछताछ की तैयारी में हैं।

कामनवेल्थ गेम्स, आदर्श या 2जी स्पेक्ट्रम की बात हो, हर वक्त प्रधानमंत्री ने रहस्यमयी चुप्पी ही साधे रखी है. सवाल ये है कि सरकार के मुखिया के तौर पर पीएम की क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती.ये घोटाले एक दिन में नहीं हुए हैं. ये लंबे समय से होते रहे हैं और जब अति हो गई तो घोटाले उजागर हो गये. हैरानी वाली बात ये है कि इन सभी घोटालों की प्रारंभिक अवस्था में सरकार ने इस बात से इंकार किया कि कोई घोटाला हो रहा है. और जब घोटाला हो चुका तब सरकार की तरफ से बयान आया कि दोषियों को बक्शा नहीं जायेगा. कहीं ये घोटालों को संरक्षण देने की रणनीति का हिस्सा तो नहीं है? प्रधानमंत्री को अपनी चुप्पी तोडते हुए इस बात का जवाब देना चाहिये. आखिर वो देश के नेता हैं और सरकार के मुखिया. सारा देश आज उनकी तरफ टक-टकी लगाये देख रहा है. ऐसे में उनकी रहस्यमयी चुप्पी उनके दामन पर दाग लगा रही है.



हमारे देश में आर्थिक अपराध करना बहुत आसान है. घोटाला जितना बडा होगा आरोपी के बचने की संभावना भी उतनी ही ज्यादा होती है. ऐसे अपराधों में कानून स्पष्ट रूप से सख्त सज़ा का भी कोई प्रवाधान नहीं करता. आज़ादी के बाद से लेकर अबतक शायद ही ऐसा कोई साल बीता होगा जब कोई बडा घोटाला ना हुआ हो. लेकिन क्या आपको ऐसा कोई साल याद है जब किसी भी बडे घोटालेबाज़ को सज़ा हुई हो? शायद यही कारण है कि हमारे देश में लंबे समय से मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक मौका पाकर शान से घोटाले करते रहे हैं. और बाद में काफी हो हल्ले के बाद इस्तीफा देकर देश पर एहसान करने की परंपरा सी बन गई है. लेकिन डी राजा तो इससे भी एक कदम आगे निकल गये. काफी समय पहले ही उजागर हो चुके इस घोटले में राजा ने इस्तीफा देने से साफ इंकार कर दिया था. और मनमोहन चाह कर भी उन्हें हटाने की हिम्मत नहीं दिखा पाए थे. सुप्रीम कोर्ट ने भी यही सवाल पूछा था कि आखिर राजा इतने बडे घोटाले के बाद भी गद्दी पर विराजमान क्यों हैं? गठबंधन की राजनीति की अपनी मजबूरियां होती हैं, लेकिन कोई भी मजबूरी देश हित से बडी नहीं हो सकती. इसलिये प्रधानमंत्री को अपनी चुप्पी तोड कर देश को ये बताना चाहिये कि आखिर क्यों उनकी सरकार में घोटालों की बाढ आ गई है? और घोटालेबाज़ों को उनके असली अंजाम तक पहुंचाने के लिये वो क्या कर रहे हैं? अगर वो ऐसा नहीं करते हो मनमोहन सरकार घोटालों की सरकार बनकर रह जायेगी.

Sunday, 14 November 2010

क्या भ्रष्टाचार बन गया है शिष्टाचार?

लमाडी, चव्हाण के बाद अब राजा को भी गद्दी छोडना पडी है. चाहे मनमोहन अंतराआत्मा की आवाज़ पर जागे हों या विपक्ष के दबाव के आगे उन्हें झुकना पडा हो...दोनों ही स्थितियों में यूपीए सरकार के दामन पर लगे भ्रष्टाचार के दाग धोना आसान नहीं होगा. मनमोहन सिंह् स्वच्छ छबि के लिए जाने जाते हैं. लेकिन ये भी उतना ही सत्य है कि उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार सिर्फ बढा ही नहीं है बल्कि अच्छी तरह फला फूला है. अभी कामनवेल्थ में भ्रष्टाचार पर जांच पूरी भी नहीं हुई है कि एक और महा घोटाले के चलते प्रधानमंत्री को शर्मिंदगी उठानी पडी है. भारतीय लोकतंत्र में शायद ये पहला उदाहरण है जब एक साथ सरकार में शामिल इतने दिग्गज एक-एक कर भ्रष्ट्राचार की बलि चढ रहे हैं. आदर्श घोटाले ने महाराष्ट्र में एक चव्हाण को हटा कर दूसरे को गद्दी दिला दी. तो 2 जी स्पेक्ट्रम ने राजा को गद्दे से उतार दिया. कलमाडी पहले ही अपने साथ कईं दिग्गजों को लपेटे में ले चुके हैं. कलमाडी और शीला की महाभारत भी किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि क्या इन महा घोटालों की जानकारी प्रधानंत्री या सोनिया गांधी को नहीं रही होगी. और यदि वो अपनी ही सरकार की नाक के नीचे होने वाले कारनामों से अनजान रहते हैं तो ये कितना सही है? राजा से इस्तीफा ले लिया गया या राजा ने इस्तीफा दे दिया...? प्रधानमंत्री ने अंतर आत्मा की आवाज़ पर ये फैसला लिया या वो विपक्ष के दबाव के आगे झुक गये....? इन तमाम मुद्दों पर काफी बहस होगी और विश्लेषक कागज़ काले करेंगे इसलिये इस मुद्दे पर मैं कुछ कहना नहीं चाहता. कल प्रधानमंत्री संसद में बयान देंगे जिसमें वो कहेंगे कि "हमारी सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सख्त है और किसी भी मामले में दोषी को बक्शा नहीं जायेगा". इसके बाद विपक्ष शांत हो जायेगा और भ्रष्टाचार का मुद्दा फिर ठंडे बस्ते में चला जायेगा. लेकिन यहां मुख्य मुद्दा ये है कि इन घोटालों के चलते देश को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई कौन करेगा? आज़ादी के बाद भी भारत से धन की निकासी रुकी नहीं है. फर्क सिर्फ इतना है कि पहले ये धन विदेशी ले जाते थे और अब हमारे चुने हुए नेता ले जाकर विदेशी बैंकों में जमा कर रहे हैं. कैसा अचंभा है कि हमारी सरकारों के पास गांवों में बिजली, पानी, सडक, स्कूल और दवाखाने जैसी मूलभूत सुविधायें जुटाने के लिये पैसा नहीं है, लेकिन एक खेल आयोजन करने के लिये टैक्स पेयर का धन पानी की तरह बहा दिया जाता है. पहले घोटाले करना और फिर इस्तीफा देकर अपना पल्ला झाड लेना क्या यही अब दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में शिष्टाचार बन चुका है?

Sunday, 27 June 2010

अंधेर नगरी-चौपट राजा: दिल्ली से योगेश गुलाटी





अंधेर नगरी-चौपट राजा की कहानी तो आपने सुनी ही होगी! आप भले ही उस चौपट राजा को बुरा भला कह लें! लेकिन मेरा मन उस चौपट राजा को प्रणाम कर रहा है! बचपन में मैं यही सोचता था कि लोग उस राजा को बुरा क्यों कहते थे, जिस राजा ने अपनी जनता के लिये हर चीज़ इतनी सस्ती कर दी थी कि टके सेर में जनता कुछ भी खरीद सकती थी! जिस राजा ने महंगाई और कालाबाज़ारी पर इस कदर अंकुश लगा दिया हो कि हर चीज़ आम आदमी की पहुंच में आ गई हो वो राजा तो महान अर्थशास्त्री और कुशल प्रशासक रहा होगा! लेकिन कुछ क्रूर इतिहासकारों ने अपने निहित स्वार्थों के चलते उस महान शासक को बदमान कर दिया! आज जब गरीबों का भोजन आटा और दाल भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गया है, मुझे ये कहानी बार- बार याद आ रही है! क्योंकि चौपट राजा की असली भूमिका में तो हमारी सरकार और सांसद हैं! जो इस महंगाई में जनता को राहत देने की बजाय अपना वेतन बढाने की कवायद कर रहे हैं! हमारी सरकार कहती है कि भगवान ने चाहा तो जल्द ही जनता को भी महंगाई से निजात मिलेगी! यानि जनता भगवान भरोसे है और ये लोग अपनी परेशानी से निजात पाने के लिये भगवान भरोसे नहीं हैं वो काम तो ये अपना वेतन पांच गुना करके खुद ही कर लेंगे! अब इसमें भगवान को कष्ट देने की क्या ज़रूरत?

महंगाई की मार से सबसे ज़्यादा अगर कोई परेशान है तो वो हैं हमारे सांसद! अब जल्द ही देश का उद्धार करने वाले हमारे गरीब सांसदों का वेतन पांच गुना हो जायेगा! क्योंकि इनका वेतन बढाने के लिये ना तो किसी वेतन आयोग की ज़रूरत होती है ना ही इनके काम के मुल्यांकन की! चाहे ये संसद में हाज़िर रहें या ना रहें! चाहे ये सदन में सोते हुए दिखाई दें! फिर भी ये आपस में मिल बैठ कर अपना वेतन बढाने का अधिकार रखते हैं! महंगाई बढ़ने के साथ ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सांसदों ने बेहतर वेतन पैकेज की मांग शुरू कर दी है। संसद की एक स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि सांसदों की मंथली सैलरी 16,000 रुपये से बढ़ा कर 80,001 रुपये यानी केंद्र सरकार के सेक्रेटरी लेवल के अधिकारी से एक रुपया अधिक कर दिया जाए। सरकार इस पर विचार कर रही है। सांसदों को सैलरी के अलावा संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए अभी 1000 रुपये बतौर अलाउंस मिलते हैं। संभावना जताई जा रही है कि सरकार इसको दोगुना यानी 2000 रुपये कर देगी। वहीं, संसदीय क्षेत्र का अलाउंस भी 40 हजार रुपये तक बढ़ाए जाने के संकेत हैं। इस समय सांसदों को इस मद में 20 हजार रुपये मिलते हैं। ऑफिस अलाउंस के तौर पर सांसदों को अब से हर महीने 54 हजार रुपये मिलने की उम्मीद है। जॉइंट पार्लियामेंटरी कमिटी ने इसे 60 हजार किए जाने की सिफारिश की थी।



जनता भले ही महंगाई की मार से कराह रही हो, लेकिन सरकार की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पडता है! क्योंकि सरकार ये अच्छी तरह जानती है कि उसके पास पर्याप्त बहुमत है... चुनाव बहुत दूर है.... और जनता की याद्दाश्त बहुत कमज़ोर... इसलिये इस वक्त जनता उसका कुछ नहीं बिगाड सकती! तो वहीं महंगाई पर विपक्ष की नौटंकी भी इस वक्त सारा देश देख रहा है! आम आदमी की किसी को फिक्र नहीं है! कोई ये समझना नहीं चाहता कि प्रति दिन बीस रुपये से भी कम पर गुज़ारा करने वाले 26 करोड हिन्दुस्तानी अब कैसे जीयेंगे? कालाबाज़ारी अपने चरम पर जा पहुंची है और मुनाफाखोर इस स्थिति का बखूबी फायदा उठा रहे हैं! सरकार के प्रवक्ता बडी बेशर्मी के साथ ये बयान देते हैं कि भगवान ने चाहा तो आने वाले दिनों में महंगाई कम हो जायेगी? समझ नहीं आता इस देश की भोली जनता को ये कैसा छलावा दिया जा रहा है? हमारी सरकार ये साफ करे कि क्या महंगाई के लिये भगवान ज़िम्मेदार है? क्या भगवान ये सरकार चला रहा है? अगर नहीं तो भगवान महंगाई कैसे कम कर सकते हैं? आप कालाबज़ारियों पर लगाम क्यों नहीं लगाते? एक तरफ तो आप कहते हैं कि देश में खाद्य पदार्थों की कोई कमी नहीं है तो दूसरी तरफ ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छू रही हैं! आम आदमी अब घर से बाहर निकलने में भी डर रहा है! बस, ट्रेन, मेट्रो, आटो, पेट्रोल, डीज़ल, केरोसिन, रसोई गैंस, स्कूल, कालेज, पानी, बिजली, दाल, आटा, सब्ज़ी, दवाईयां, हर ज़रूरत पर महंगाई की मार पडी है!

आम आदमी अपने पुराने ज़ख्म सहला भी नहीं पया था कि उसे नये ज़ख्म देने की तैयारी कर ली गई! बिजली, पानी, टेक्स के बाद रही सही कसर पेट्रोल डेज़ल और केरोसिन की कीमतों ने पूरी कर दी! और बडी बेशर्मी के साथ इसका ऎलान भी कर दिया गया! और इसे भगवान की मर्ज़ी कह कर जनता को बेहलाया जा रहा है! चुनाव जीतने के लिये तो जनता को सब्जबाग दिखाए जाते हैं! रसोई गैंस पर सब्सीडी देकर उसे दिल्ली में सबसे सस्ता बना दिया जाता है! और फिर सत्ता हथियाते ही जनता पर जुल्म शुरु हो जाते हैं! कामनवेल्थ के नाम पर रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है! इधर आम आदमी महंगाई और करों के बोझ तले दबा जा रहा है! कामनवेल्थ गेम्स के लिये सजाई जा रही दिल्ली की सडकों पर हमारे बच्चे भीख मांगते देखे जा सकते हैं! जब यही बच्चे विदेशी मेहमानों के सामने हाथ फैलाएंगे तब हमारी सरकार की नाक नीची नहीं होगी? लेकिन हमारे सांसदों को इसकी क्या चिंता? इन्हें चिंता है तो इस बात की कि इस महंगाई में उनको मिल रहे वेतन से उनका गुज़ारा नहीं होता इसलिये वे अपना वेतन पांच गुना करने की तैयारी कर रहे हैं! यानि गरीब जनता की गाढी कमाई अब कामनवेल्थ के बाद सांसदों की झोली में जाएगी! और बीस रुपये से भी कम पर अपना गुजारा करने को मजबूर करोडों हिंदुस्तानी महंगाई की मार से यूं ही बेहाल होते रहेगें! लेकिन हमारी सरकार बेचारी क्या करे? ये सब भगवान की मर्ज़ी है!

Monday, 21 June 2010

एंडरसन बडा बेशर्म है: दिल्ली से योगेश गुलाटी

आज से 25 साल पहले 65 साल के एंडरसन को पूरे राजकीय सम्मान के साथ प्लेन में बैठा कर अमेरिका रवाना करते वक्त हमारी सरकार ने शायद यही सोचा होगा कि जब तक हमारी अदालत गैस कांड का फैसला सुनाएगी तब तक बूढा एंडरसन स्वर्ग को कूच कर चुका होगा! ये पुराना आजमाया हुआ फंडा है जो हमारी सरकारें किसी बडे नेता या उद्योगपति के कानून के शिकंजे में फंसने पर अपनाती आई हैं! ऎसे मामले जो खास लोगों से जुडे होते हैं उनमें हमारी धीमी न्याय व्यवस्था की चाल को किस तरह और धीमा किया जाये कि वो घिसट कर चलने लगे, ये हमारी सरकारें अच्छी तरह जानती हैं! हमारे देश में किसी भी प्रभावशाली व्यक्ति के जुर्म पर फैसला 25-30 सालों से पहले नहीं आता है! अब निचली अदालत ही जब इतना वक्त लेती है तो, चिंता किस बात की? यहां सज़ा सिर्फ उसे होती है जिसके पास हमारी न्याय व्यवस्था में मुकदमों को लंबा खींचने के लिये पैसा नहीं होता! ज़ाहिर सी बात है गरीब के पास चूंकि पैसा नहीं होता इसलिये उसे अपनी छोटी से छोटी भूल के लिये भी सज़ा भुगतनी पडती है! और फैसला आने में भी ज़्यादा देरी नहीं होती!

लेकिन प्रभावशाली लोगों के मुकदमें हमारी अदालतों में कछुए की चाल को भी मात कर देते हैं! ताज़ा उदाहरण शीबू सोरेन का है! जिनपर लगे हत्या के चंद आरोपों में से एक का फैसला बीते दिनों ही आया है! ये मामला सन 1974 का है! बताया जाता है कि शीबू सोरेन ने दो लोगों की हत्या के लिये भीड का नेतृत्व किया था! निचली अदालत में ये मुकदमा दशकों तक चलता रहा! अब जाकर निचली अदालत ने इसका फैसला सुनाया! और ज़ाहिर सी बात है ऎसी घटनाओं के सबूत इतने सालों तक न्याय की आस में ज़िंदा नहीं रह सकते! तो सबूतों के अभाव में गुरुजी को बरी कर दिया गया! दशकों पहले के ऎसे दो अन्य हत्या के मामलों में भी गुरुजी बरी हो चुके हैं! जिन मामलों में आरोपी को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया जाता है उनमें आखिर पीडित को न्याय का क्या होता है? अगर आरोपी ने हत्या नहीं की तो फिर हत्या किसने की? हमारी अदालतें ये तो स्वीकर करेंगी कि जुर्म हुआ है? और अगर जुर्म हुआ है तो क्या गुनहगार को ढूंढ कर उसे सज़ा दिलवाना कानून का फर्ज़ नहीं है! खैर सबूतों के अभाव में आरोपी को बरी करना हमारे यहां आम बात है! अब 25 साल तक केस चलेगा तो कौनसा सबूत बचा रहेगा? अगर आरोपी ज़िंदा रह गया इतने वक्त तक तो क्या गारंटी है कि गवाहों की उम्र इतनी लंबी होगी? और कोई गवाह किस्मत से लंबी उम्र का निकला तो भी अब इतने सालों के बाद वो क्यों अपने बयान पर कायम रहेगा? उसे कोई मेडल थोडेय ही मिल जायेगा आरोपी को सज़ा दिला कर? और अगर उसने आरोपी के खिलाफ गवाही दे भी दी तो उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा? लेकिन इन फालतू के सवालों पर विचार करने के लिये हमारे सिस्टम के पाद टाईम नहीं है!

खुदीराम बोस को गिरफ्तारी के 11 दिनों में अदालती कार्वाई पूरी करते हुए अंग्रेज़ों ने फांसी पर लटाका दिया था! उस वक्त उनकी उम्र महज़ 14 साल थी! तो भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को भी फांसी देने में अंग्रेज़ों ने ज़्यादा वक्त नहीं लिया था! ये लोग कोई आतंकवादी नहीं थे! ना ही कोई खूंखार अपराधी, जिनसे समाज को कोई खतरा हो! ये महान विचारक,लेखक, शायर, और विद्वान देशभक्त थे! अंग्रेज़ हुकूमत भी इस बात को अच्छी तरह जानती थी! लेकिन साम्रज्यवादी हितों को पूरा करने के लिये उसने इन महान देशभक्तों को शहीद कर दिया था! ये आज़ादी के पहले की बात थी!

और आज़ादी के बाद.....एक शख्स जो हमारी संसद पर हमला कर इस देश की संप्रभुता को चुनौती देता है, उसके समर्थन में आवाज़ बुलंद करने कईं बडी शख्सियतें सामने आती हैं! सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी पाये जाने और लंबी कानूनी कार्यवाही के बाद देश के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा सज़ाए मौत सुनाए जाने के बाद भी हमारी सरकार इस अदालती फैसले पर अमल करने से डरती है! क्योंकि वो कहती है कि इससे कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड जायेगी! अगर एक आतंकवादी को सज़ा देने से कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड जायेगी तो ये समझा जा सकता है कि हम किस दोराहे पर आ गये हैं! और इसका अंजाम क्या होगा?

एक और शख्स जिसने अपने साथियों के साथ मुंबई में हिंसा का वो तांडव किया कि सारी दुनिया हैरान रह गई! उसे जिंदा गिरफ्तार करने के लिये हमारे जाबाज़ों जान की बाज़ी लगा दी! जिसे हिंसा का तांडव रचते हुए सारी दुनिया ने अपनी टीवी स्क्रीन पर देखा! उसे 800 से ज्यादा लोगों की गवाही और तमाम सबूतों के साथ् लंबी चली अदालती कार्यवाही के बाद जब सज़ा सुनाई गई तो ऎसा प्रदर्शित किया गया मानो हमने आतंकवाद के खिलाफ बहुत बडी जंग जीत ली है! जबकि सबको पता है कि उंची अदालतों से होता हुआ मामला अभी राष्ट्रपति के पास जायेगा! लेकिन हमारी सरकार चिंतित है, उसे इस बात की चिंता है कि इस दौरान आतंकी उसे छुडाने के लिये प्लेन हाईजेक जैसी कोई वारदात कर सकते हैं! इसलिये उसने राज्य सरकारों को अलर्ट कर दिया है!

यानि हमारा सिस्टम हर किस्म के आरोपी के साथ समभाव से पेश आता है! और उसे बचने का पूरा-पूरा मौका देता है! वो गवाहों के बदलने और सबूतों के नष्ट होने का इंतज़ार करता है! ताकि आरोपी को सबूतों के अभाव में छोडा जा सके! ये स्थिति भी केवल उसी दशा में आती है जब हमारी पुलिस स्काटालेंड यार्ड की पुलिस की तर्ज़ पर काम करे! जबकि हम ये अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी पुलिस किस मजबूती के साथ अदालत में केस पेश करती है! आरुषी मर्डर केस और निठारी जैसे मामले हमारी पुलिसिया रवैये को दर्शाते हैं! आरोपी को गिरफ्तार करने से ज्यादा मुस्तैदी ये बास का कुत्ता ढूंढने में दिखाते हैं! पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट के सब्र का बांध भी टूट गया और जस्टिस ढींगरा ने पुलिस को बेशर्म और भी जाने क्या-क्या अलंकारों से सुषोभित किया!

तो ये बात गौर करने लायक है कि हमारे यहां ऎसे किसी भी मामले का फैसला 25-30 सालों से पहले नहीं आता जिसमें कोई प्रभावशाली शख्सियत कानून के शिकंजे में होती है! अब यदि ऎसे मामलों में फैसला उस शख्स के खिलाफ आये और वो शख्स बदकिस्मती से उस वक्त तक ज़िंदा हो तो भी उसके पास उपरी अदालतों में अपील करने का मौका होता है! भोपाल गैंस कांड के बाद एंडरसन के मामले में भी सरकार की यही रणनीति रही होगी! लेकिन बदकिस्मती से एंडरसन की उम्र ज़रा लंबी है! सरकार ये अच्छी तरह जानती है कि एंडरसन को भारत वापस लाना उसके लिये टेढी खीर है, इसीलिये इस मामले पर आये अदालती निर्णय में एंडरसन का ज़िक्र तक नहीं हुआ! जब 25 बरस तक केस चलने के बाद आये फैसले में एंडरसन का ज़िक्र तक नहीं है तो किस आधार पर आप एंडरसन के प्रत्यर्पण की बात कर रहे हैं! शायद ये सवाल अमेरिका की तरफ से पूछा जा सकता है! जो भी हो एंडरसन बडा बेशर्म है क्योंकि अगर उसकी उम्र इतनी लंबी ना होती तो हमारी सरकार के लिये वो गले की हड्डी ना बनता! और दिनियाभर में भारत सरकार की किरकिरी ना हो रही होती!

Wednesday, 16 June 2010

भीख मांगता बचपन: दिल्ली से योगेश गुलाटी

दिल्ली में मेट्रो ने जिधर का रुख किया उधर वैभव और विलासिता के नित नये नज़ारे उभर आये! या यों कहें कि उन्नति की प्रतीक अट्टालिकाओं की शोभा बढाने मेट्रो ट्रेन भी वहां जा पहुंची! पन्द्रह साल पहले तक नोएडा एक सुनसान गांव हुआ करता था! लेकिन आज तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है! ये गांव अब महानगर में तब्दील हो चुका है! लेकिन खास बात ये है कि महानगर की तमाम खूबियां और खामियां इस गांव ने तेज़ी के साथ ग्रहण कर ली हैं! दिल्ली और नोएडा में काफी समानताएं हैं यहां भी गरीबी और अमीरी के बीच की खाई गहरी है! आसमान छूती इमारतों के सामने बनी झोंपडियां गरीबी और अमीरी के बीच के इस अंतर को बयान करती हैं! ये सब देख अब हैरानी नहीं होती! क्योंकि यही तो भारतीय महानगरीय संस्कृति की विशेषता है! यहां गरीब और अमीर के हक तो समान हैं लेकिन गरीब और अमीर में अंतर ज़मीन आसमान का है! दिल्ली और नोएडा में एक और अंतर भी है! दिल्ली में कामनवेल्थ गेम्स के मद्देनज़र गरीबी हटाओ का पचास सालों से चला आ रहा अभियान इन दिनों गरीब हटाओ का रूप ले चुका है! जबकि नोएडा में ऎसा बिल्कुल नहीं है! वहां सरकार की रुचि ना तो गरीबी हटाने में है ना ही गरीबों को हटाने जैसा कोई कर्म वो कर रही है! दर-असल यहां व्यवस्था गरीब और गरीबी दोनों को ही फलने फूलने का पूरा मौका दे रही है! झोपडी में रहने वाले गरीबों को जब सरकार घर नहीं दे सकी तो भी उसने गरीबों के आराम की पूरी व्यवस्था की और उनके लिये नोएडा में बडा सा पार्क बनवा कर उसमें लाखों रुपयों की बडी-बडी मूर्तियां लगवाईं! ऎसा शायद इसलिये किया गया कि दिल्ली के पार्कों से कामनवेल्थ गेम्स के मद्देनज़र गरीबों को हटाने का अभियान इन दिनों ज़ोरों पर है! शायद इसीलिये सरकार ने गरीबों को अपना गम भुलाने के लिये नोएडा में एक विशाल पार्क की व्यवस्था कर दी है! हालाकि कानूनी पचडों में पडा ये पार्क इन दिनों बंद है! और निर्माण कार्य रुक गया है!

नोएडा में गरीबों के साथ ही भिखारियों की संख्या में भी इन दिनों खासा इजाफा हुआ है! भिखारियों के लिये यहां की आबो-हवा दिल्ली से बेहतर है! दिल्ली की ही तरह यहां भी सडकों पर बच्चे भीख मांगते देखे जा सकते हैं! हालाकि हमारे यहां बाल मजदूरी और बाल भिक्षा-वृत्ति के खिलाफ दशकों पहले कानून बन चुका है! लेकिन कानून के रक्षकों के सामने हज़ारों मासूम बच्चे जिनकी उम्र 3-10 साल के बीच की है दिल्ली की ही तरह अब नोएडा की सडकों पर भीख मांग रहे हैं! इस गैर कानूनी काम को करने के एवज़ में नियत शुल्क इस धंधे के सरगना कानून के रक्षकों को चुकाते हैं! जिसके एवज़ में उन्हें 24 घंटे बच्चों से भीख मंगवाने की छूट मिलती है! ऎसा नहीं है कि सरकार, कोर्ट या कानून को ये सब दिखाई ना दे रहा हो! शिक्षा के अधिकार का कानून बनाने वाली हमारी सरकार को भी सब कुछ पता है! बावजूद इसके वैभव के प्रतीक नोएडा में देश का भविष्य भीख मांग रहा है! ऎसी ही एक नन्ही बच्ची जब नोएडा के सेक्टर 15 मेट्रो स्टेशन की सीढियों पर बैठी देखी तो मैं सोच में पड गया! क्योंकि गरीबी का ज़िंदा भूत भी मैंने ऎसे ही दिल्ली के कनाट प्लेस मेट्रो स्टेशन की सीढियों पर बैठा देखा था! फर्क सिर्फ इतना था कि लोग गरीबी के उस ज़िंदा भूत से कट कर निकल रहे थे! फैशनेबल लोग उसकी काली पड चुकी, कंकाली काया को घृणा से देख रहे थे! लेकिन नोएडा के मेट्रो स्टेशन की सीढियों पर बैठी इस मासूम बच्ची को लोग बेचारगी से देख रहे थे! और अपने हाथ में लिये जर्मन के कटोरे को वो जिसकी तरफ भी बढाती वो ही शख्स उस कटोरे में एक सिक्का डाल देता था! इस तरह उसके कटोरे में सिक्कों का ढेर लगता जा रहा था! मेट्रो की सीढियों से नीचे उतरते वक्त उस बच्ची ने वो कटोरा मेरी तरफ भी बढा दिया! मैंने उसके मासूम चेहरे को देखा फिर मेरी नज़र सामने खडे यूपी पुलिस के सिपाही पर गयी जो तंबाकू चबा कर थूक रहा था! मैं इसकी तुलना दिल्ली पुलिस के उस सिपाही से करने लगा जो गरीबी के उस ज़िंदा भूत को कनाट प्लेस मेट्रो स्टेशन की सीढियों से हटाने के लिये दौड पडा था! लेकिन यूपी पुलिस के इस सिपाही की इस मामले में कोई रुचि नहीं थी! वो तो रेहडी वाले को हडकाने में व्यस्त था! हां मैं भी एक सिक्का उस मासूम के कटोरे में डाल कर उन दानवीरों की तरह एक महादान का पुण्य कमा सकता था! लेकिन मैंने ऎसा नहीं किया ! मैं चुपचाप आगे बढ गया! लेकिन उस नन्ही बच्ची का चेहरा मेरी आंखों से ओझल नहीं हुआ था! इसलिये मैंने मुड कर देखा! वो नन्हा बचपन खेलने और पढने की उम्र में एक और राहगीर के सामने हाथ फैला रहा था! और कानून का रक्षक रेहडी वाले से हफ्ता वसूल रहा था!

Sunday, 13 June 2010

एंडरसन और हमारा मीडिया: दिल्ली से योगेश गुलाटी

देश के स्वतंत्रता आंदोलनों में राष्ट्र प्रेम और जन चेतना की नव ज्योति को जलाए रखने वाली पत्रकरिता आज़ादी के बाद दिशाहीन सी हो गई! आज़ादी के बाद हमारे सामने राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य था! इस लक्ष्य को पाने के लिये हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में सरकार काम कर रही थी! आज़ादी के बाद् करीब एक दशक तक तो सब कुछ ठीक चला लेकिन एक दशक के बाद ही राष्ट्र निर्माण का वो जोश जाता रहा! लोकतंत्र की आम कमियां जिनमें भ्रष्ट्राचार प्रमुख थी, सरकार की कार्यप्रणली पर सवालिया निशान लगाने लगी! ऎसे में जनता की सारी उम्मीदें मीडिया पर टिकी थीं! लेकिन मीडिया ने भी वो सक्रिय भूमिका नहीं निभाई जो स्वतंत्रता आंदोलनों के वक्त उसने निभाई थी! अंग्रेज़ हुकूमत की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जन चेतना का आगाज़ करने वाला हमारा मीडिया अपनी ही सरकार के शासन में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर ज़्यादा मुखर नहीं दिखा! शायद इसी का परिणाम था कि भ्रष्टाचार का वो घुन हमारी व्यवस्था में इस कदर घुसपैठ कर चुका है कि आज़ादी के साठ सालों के बाद उसने हमारी व्यवस्था को तकरीबन खोखला बना दिया है!

इन दिनों भोपाल गैंस कांड और एंडरसन की चर्चा ज़ोरों पर है! मीडिया में ये मुद्दा इन दिनों छाया हुआ है! मानवता को झकझोर देने वाली इस भीषण औद्योगिक त्रासदी के प्रमुख ज़िम्मेदार एंडरसन को लेकर तात्कालिक सरकार की भूमिका पर सवाल खडे किये जा रहे हैं! लेकिन ये हमारे लिये परेशानी की बात है! परेशानी इसलिये कि आज से पच्चीस बरस पहले अगर मीडिया ने सही भूमिका का निर्वाह किया होता तो शायद आज इस मामले पर दुनिया भर में भारत की जग हसाई ना हो रही होती! कितनी हैरानी की बात है कि 25 साल पहले जो सवाल सरकार से पूछने चाहिये थे वो सवाल 25 बरस के बाद पूछे जा रहे हैं! मीडिया में मुद्दों का पोस्टमार्टम करने की प्रवृत्ति दिनों दिन बढती जा रही है! ये स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत नहीं है!

हमारे सिस्टम को भ्रष्टाचार का घुन किस कदर खोखला कर चुका है इसकी एक बानगी झारखंड में कोडा सरकार के काले कारनामों और नरेगा जैसी लोक कल्याणकरी योजनाओं में व्यापक धांधलियों से हो जाती है! आटे में नमक के बराबर भ्रष्टाचार पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के वक्त जब बर्दाश्त के बाहर हो गया तो उन्हें भी ये स्वीकारना पडा कि केन्द्र से चला एक रुपया आम आदमी तक दस पैसे के रुप में ही पहुंच पाता है! लेकिन आज आसमान पर चढ बैठी महंगाई ने आम आदमी के खाने का ज़ायका ही बिगाड दिया है! आटे में भरष्टाचार का ये नमक अब आम आदमी की हड्डियां गला रहा है! उसे समझ नहीं आ रहा कि वो करे तो क्या? क्योंकि उसकी अपनी सरकार को उसकी कोई चिंता नहीं है ! और कानून उसे ज़िंदा रहते न्याय नहीं देता! अदलतों के चक्कर लगा कर उसकी उम्र बीत जाती है! उसके हाथ कुछ आये ना आये इस दौरान उसका सब कुछ लुटना तय होता है! एसे में उसके पास एक ही उम्मीद बचती है और वो है मीडिया! लेकिन हमारा मीडिया जिस तरह पच्चीस बरस बाद जागता है और ज़मीनी मुद्दों के जगह बिकाऊ मुद्दों की तलाश में रहता है उसे देख कर आम आदमी अब किसी भी ज़्यादती पर न्याय मिलने की उम्मीद छोड चुका है! शायद उसने ये मान लिया है कि अन्याय को सहना ही उसकी नियति है!

लेकिन इस दुर्दशा के लिये मीडिया को दोष देना भी सही नहीं है! नज़दीक जाने पर ही मीडिया की सही तस्वीर उभर कर सामने आती है! मीडिया और इसकी कार्यप्रणाली को करीब से जानने और समझने वाले इस बात को बखूबी जानते हैं कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को कभी भी मजबूत बनाने की कोशिश नहीं की गई! अमेरिका और यूरोप के मीडिया और हिंदुस्तान के मीडिया में ज़मीन आसमान का अंतर है! वहां मीडिया नियमों से संचालित होता है! और सही अर्थों में प्रेस की स्वतंत्रता वहां कायम की गई है! कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वहां का मीडिया पूरी तरह अनुशासन में रह कर काम करता है! इसलिये जनता की असली आवाज़ उभर कर सामने आती है! वहां जिन मुद्दों पर मीडिया में बहस होती है वो बाद में कानून बनाने में सरकार के मददगार बनते हैं! वहां मेडिया की स्वतंत्रता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां नेताओं की व्यक्तिगत ज़िंदगी पर भी मीडिया की पैनी नज़र होती है! अमेरिका और ब्रिटेन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की ज़िंदगी एक खुली किताब की तरह होती है! और उसमें मीडिया बेरोकटोक तांका-झांकी करता है! लेडी डयना, बिल क्लिंटन और फ्रांस के राष्ट्रपति स्रकोज़ी जैसी हस्तीयों के चटपटे किस्से इसकी पैरवी करते हैं! लेकिन हमारे देश में कितने नेताओं की निजी ज़िंदगी के बारे में हम जानते हैं! सोनिया गांधी पर आधारित ना होने के बावजूद प्रकाश झा की हालिया फिल्म राजनीति का विरोध होता है! रेड सारो जैसी किताब और इंडियन समर जैसी फिल्मों को रोकने के प्रयास भी यही दर्शाते हैं कि मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों की निजी ज़िंदगी में झांकने की अनुमति भारत में नहीं है! यहां सवाल ये भी है कि अंग्रेज़ सरकार की ज़्यादतियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाला मीडिया आज़ादी के बाद अपनी ही सरकार की कमज़ोरियों को उस बुलंदी के साथ सामने लाने और जनता की परेशानियों को सरकार तक पहंचाने का काम करने में काफी हद तक नाकाम क्यों रहा? भोपाल गैंस कांड के 25 बरसों के बाद सुर्खियों में आने से यही जाहिर होता है कि यदि अदालत का निर्णय नहीं आता तो सरकार की संदिग्ध भूमिका पर मीडिया सवाल भी ना उठाता!

लेकिन यहां बात उस मजदूर तबके की भी करनी होगी जो मीडिया में काम करता है जिसे मीडियकर्मी या पत्रकार के नाम से जाना जाता है! पत्रकारों की दुर्दशा पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है! ऎसे में पत्रकार बिकाऊ मजदूर बनने को मजबूर हो गया है! कलम पर अगर भूख हावी हो जाये तो ये लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत नहीं है! लेकिन विडंबना यही है कि आज पत्रकारिता की ये सच्चाई बन चुका है! खबर अब बिकाऊ माल बन चुकी है! मार्केटिंग के नये-नये फंडे इजाद किये जा रहे हैं! मीडिया मेनेजमेंट को कभी गलत समझा जाता था, लेकिन आज इसे कानूनी रुप से पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है! मीडिया मेनेजमेंट का कोर्स कर निकले एमबीए के छात्र लाखों की नौकरी करते हुए कारपोरेट हितों के लिये मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं! ऎसे में असली पत्रकारिता हाशिये पर चली गई है! मेरे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद प्रवीण की कविता मेँ यही दर्द कुछ इस तरह उभर कर सामने आया है!

हम,

कितने बेचारे हैं ?

लाचार,

थके-हारे...

युद्ध में पराजित सा योद्धा ।

चले थे,

दुनिया को दीया दिखाने,

मगर,
भूल गए थे...
कि, हम वहां खड़े हैं,
तलहटी में,

जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।
अंधेरे ने


ठूंठ बना दिया है,
हमें,
और, हमारी चेतना को...
जो कभी,
दुनिया को छांव देती थी,
पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।


फिर भी,
नाउम्मीदों के बीच,
एक उम्मीद बना रखी है,
मानसून का...
झमाझम बारिश का...
दादुरों के शोर का...
कौवों के कांव-कांव का...

मगर,

निर्लज्ज जेठ,
हमारी जिंदगी से,
जाने का नाम ही नहीं लेता,
निगोड़ा बादल,
कभी झलक दिखलाता ही नहीं।
फिर,
कैसे कहूं...
शरद आएगा...
शिशिर आएगा...
और फिर,
आएगा बसंत...
हमारी जिंदगी का ...।

Saturday, 12 June 2010

भीख मांगता बचपन: दिल्ली से योगेश गुलाटी

दिल्ली में मेट्रो ने जिधर का रुख किया उधर वैभव और विलासिता के नित नये नज़ारे उभर आये! या यों कहें कि उन्नति की प्रतीक अट्टालिकाओं की शोभा बढाने मेट्रो ट्रेन भी वहां जा पहुंची! पन्द्रह साल पहले तक नोएडा एक सुनसान गांव हुआ करता था! लेकिन आज तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है! ये गांव अब महानगर में तब्दील हो चुका है! लेकिन खास बात ये है कि महानगर की तमाम खूबियां और खामियां इस गांव ने तेज़ी के साथ ग्रहण कर ली हैं! दिल्ली और नोएडा में काफी समानताएं हैं यहां भी गरीबी और अमीरी के बीच की खाई गहरी है! आसमान छूती इमारतों के सामने बनी झोंपडियां गरीबी और अमीरी के बीच के इस अंतर को बयान करती हैं! ये सब देख अब हैरानी नहीं होती! क्योंकि यही तो भारतीय महानगरीय संस्कृति की विशेषता है! यहां गरीब और अमीर के हक तो समान हैं लेकिन गरीब और अमीर में अंतर ज़मीन आसमान का है! दिल्ली और नोएडा में एक और अंतर भी है! दिल्ली में कामनवेल्थ गेम्स के मद्देनज़र गरीबी हटाओ का पचास सालों से चला आ रहा अभियान इन दिनों गरीब हटाओ का रूप ले चुका है! जबकि नोएडा में ऎसा बिल्कुल नहीं है! वहां सरकार की रुचि ना तो गरीबी हटाने में है ना ही गरीबों को हटाने जैसा कोई कर्म वो कर रही है! दर-असल यहां व्यवस्था गरीब और गरीबी दोनों को ही फलने फूलने का पूरा मौका दे रही है! झोपडी में रहने वाले गरीबों को जब सरकार घर नहीं दे सकी तो भी उसने गरीबों के आराम की पूरी व्यवस्था की और उनके लिये नोएडा में बडा सा पार्क बनवा कर उसमें लाखों रुपयों की बडी-बडी मूर्तियां लगवाईं! ऎसा शायद इसलिये किया गया कि दिल्ली के पार्कों से कामनवेल्थ गेम्स के मद्देनज़र गरीबों को हटाने का अभियान इन दिनों ज़ोरों पर है! शायद इसीलिये सरकार ने गरीबों को अपना गम भुलाने के लिये नोएडा में एक विशाल पार्क की व्यवस्था कर दी है! हालाकि कानूनी पचडों में पडा ये पार्क इन दिनों बंद है! और निर्माण कार्य रुक गया है!

नोएडा में गरीबों के साथ ही भिखारियों की संख्या में भी इन दिनों खासा इजाफा हुआ है! भिखारियों के लिये यहां की आबो-हवा दिल्ली से बेहतर है! दिल्ली की ही तरह यहां भी सडकों पर बच्चे भीख मांगते देखे जा सकते हैं! हालाकि हमारे यहां बाल मजदूरी और बाल भिक्षा-वृत्ति के खिलाफ दशकों पहले कानून बन चुका है! लेकिन कानून के रक्षकों के सामने हज़ारों मासूम बच्चे जिनकी उम्र 3-10 साल के बीच की है दिल्ली की ही तरह अब नोएडा की सडकों पर भीख मांग रहे हैं! इस गैर कानूनी काम को करने के एवज़ में नियत शुल्क इस धंधे के सरगना कानून के रक्षकों को चुकाते हैं! जिसके एवज़ में उन्हें 24 घंटे बच्चों से भीख मंगवाने की छूट मिलती है! ऎसा नहीं है कि सरकार, कोर्ट या कानून को ये सब दिखाई ना दे रहा हो! शिक्षा के अधिकार का कानून बनाने वाली हमारी सरकार को भी सब कुछ पता है! बावजूद इसके वैभव के प्रतीक नोएडा में देश का भविष्य भीख मांग रहा है! ऎसी ही एक नन्ही बच्ची जब नोएडा के सेक्टर 15 मेट्रो स्टेशन की सीढियों पर बैठी देखी तो मैं सोच में पड गया! क्योंकि गरीबी का ज़िंदा भूत भी मैंने ऎसे ही दिल्ली के कनाट प्लेस मेट्रो स्टेशन की सीढियों पर बैठा देखा था! फर्क सिर्फ इतना था कि लोग गरीबी के उस ज़िंदा भूत से कट कर निकल रहे थे! फैशनेबल लोग उसकी काली पड चुकी, कंकाली काया को घृणा से देख रहे थे! लेकिन नोएडा के मेट्रो स्टेशन की सीढियों पर बैठी इस मासूम बच्ची को लोग बेचारगी से देख रहे थे! और अपने हाथ में लिये जर्मन के कटोरे को वो जिसकी तरफ भी बढाती वो ही शख्स उस कटोरे में एक सिक्का डाल देता था! इस तरह उसके कटोरे में सिक्कों का ढेर लगता जा रहा था! मेट्रो की सीढियों से नीचे उतरते वक्त उस बच्ची ने वो कटोरा मेरी तरफ भी बढा दिया! मैंने उसके मासूम चेहरे को देखा फिर मेरी नज़र सामने खडे यूपी पुलिस के सिपाही पर गयी जो तंबाकू चबा कर थूक रहा था! मैं इसकी तुलना दिल्ली पुलिस के उस सिपाही से करने लगा जो गरीबी के उस ज़िंदा भूत को कनाट प्लेस मेट्रो स्टेशन की सीढियों से हटाने के लिये दौड पडा था! लेकिन यूपी पुलिस के इस सिपाही की इस मामले में कोई रुचि नहीं थी! वो तो रेहडी वाले को हडकाने में व्यस्त था! हां मैं भी एक सिक्का उस मासूम के कटोरे में डाल कर उन दानवीरों की तरह एक महादान का पुण्य कमा सकता था! लेकिन मैंने ऎसा नहीं किया ! मैं चुपचाप आगे बढ गया! लेकिन उस नन्ही बच्ची का चेहरा मेरी आंखों से ओझल नहीं हुआ था! इसलिये मैंने मुड कर देखा! वो नन्हा बचपन खेलने और पढने की उम्र में एक और राहगीर के सामने हाथ फैला रहा था! और कानून का रक्षक रेहडी वाले से हफ्ता वसूल रहा था!

Friday, 11 June 2010

मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद प्रवीण की एक कविता: दिल्ली से योगेश गुलाटी

प्रिय श्री योगेश जी,




मजदूर दिवस का उपहार स्वीकार करें...



हम,


कितने बेचारे हैं ?


लाचार,


थके-हारे...


युद्ध में पराजित सा योद्धा ।


चले थे,


दुनिया को दीया दिखाने,


मगर,


भूल गए थे...


कि, हम वहां खड़े हैं,


तलहटी में,


जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।


अंधेरे ने


ठूंठ बना दिया है,


हमें,


और, हमारी चेतना को...


जो कभी,


दुनिया को छांव देती थी,


पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।


फिर भी,




फिर भी,


नाउम्मीदों के बीच,


एक उम्मीद बना रखी है,


मानसून का...


झमाझम बारिश का...


दादुरों के शोर का...


कौवों के कांव-कांव का...


मगर,


निर्लज्ज जेठ,


हमारी जिंदगी से,


जाने का नाम ही नहीं लेता,


निगोड़ा बादल,


कभी झलक दिखलाता ही नहीं।


फिर,


कैसे कहूं...


शरद आएगा...


शिशिर आएगा...


और फिर,


आएगा बसंत...


हमारी जिंदगी का ...।



एक मई, यानी मजदूर दिवस पर, मीडिया के मजदूरों की मज़बूर-गाथा के दो शब्द