टीवी मीडिया के क्षेत्र में कदम रखने वाले अनगिनत
छात्र-छात्राओं का सपना एंकर या रिपोर्टर बनना ही होता है. ऐसा क्यों है
इसका कारण तो मैं भी नहीं समझ सका, लेकिन उनकी यही ख्वाईश उन्हें असफलता के
दरवाज़े पर ला खडा करती है. उन्हें पत्रकारिता की चुनौतियों या इस राह में
आने वाली मुश्किलों से कोई वास्ता नहीं होता है. इस क्रम में नया कुछ
सीखने-समझने और ज्ञान बढाने की ललक भी ऐसे उम्मीदवारों में कम ही देखने को
मिलती है. वो तो बस रातों-रात बरखा दत्त या दीपक चौरसिया बन जाना चाहते
हैं. शीर्ष पर पहुंचे इन लोगों की संघर्ष गाथा से भी उनका कोई वास्ता नहीं
होता. ज़ाहिर सी बात है, हवाई किले हकीकत में तब्दील नहीं हो पाते. आईबीएन7
के मैनिजिंग एडिटर आशुतोष जब नौकरी की तलाश में बनारस से दिल्ली आये थे तो
उन्हें भी कईं जगह से निराश होना पडा था. लेकिन जिन संपादकों ने उन्हें
नौकरी देने से इनकार कर दिया था आज वो ही लोग उन्हें सम्मान देते हैं.
क्योंकि आशुतोष का सपना पत्रकार बनने का था ना कि एंकर या रिपोर्टर बनकर
स्क्रीन पर चमकने का ख़्वाब उन्होंने पाला था!
आज जब हिन्दी और अंग्रेज़ी के सैंकड़ों न्यूज़ चैनल आ गए हैं और उनमें अनगिनत एंकर और रिपोर्टर काम कर रहे हैं बावजूद इसके वो ही पुराने नाम अपनी पहचान बरकरार रखे हैं. बाकी चेहरों को कोई पहचानता तक नहीं है, जबकि वो दिन भर टीवी पर न्यूज़ पढ़ रहे होते हैं, और रिपोर्टिंग कर रहे होते हैं, लेकिन वो चहरे फिर भी अपना प्रभाव छोड़ने में असफल ही साबित हुए हैं. और पुराने सितारों की चमक बरकरार है. टीवी पत्रकारिता के दूसरे दशक में दाखिल होने के बाद भी नए चहरे अपनी पहचान नहीं बना पाए हैं, इतने समय में कोंई दूसरा दीपक चौरसिया या पुण्यप्रसून वाजपयी, करन थापर, राजदीप, आशुतोष या विनोद दुआ क्यों नहीं बन पाया? टीवी पत्रकारिता में महिलाओं की संख्या पुरूषों से भी ज़्यादा है, और उन्हें यहाँ बराबरी के अवसर भी मौजूद हैं फिर भी महिलाओं में कोंई नया चेहरा अपनी पहचान नहीं बना पाया.
इन सबके बीच एक नए चहरे का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जिसने रिपोर्टिंग और प्रस्तुति की ख़ास शैली के चलते धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाई है. 'रवीश कुमार' को कुछ साल पहले तक कम ही लोग जानते थे, लेकिन आज ये नाम टीवी दर्शकों के लिए अपना सा है. ये वो लोग हैं जो कभी भी आपको टेली-प्रिंटर पढ़ते नज़र नहीं आएँगे. हर खबर पर इनका अपना नज़रिया होता है, और हर खबर का एंकर इंट्रो ये खुद लिखते हैं. इसलिए स्क्रीन पर ये वाचाल और क्रियाशील दिखाई देते हैं. इनकी हर खबर की प्रस्तुति सजीव होती है. जो दर्शकों से सीधा-संवाद स्थापित कर लेती है. ये लोग भी बेहद साधारण हैं लेकिन ये सभी असाधारण इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि इन्होने अपने ज्ञान को परिधि में नहीं बांधा है. बल्कि हर-पल उसे विस्तारित करने की कोशिश में लगे रहते हैं.
अगर भारत में पत्रकारिता का इतिहास उठाकर देखें तो पत्रकारिता में ऐसे ही लोग सफल हुए हैं जो देश और समाज से सीधा संवाद रखते थे. आज़ादी से पहले हमारे यहाँ राजा राममोहन राय, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, एनी बेसेंट, और सरोजनी नायडू जैसी अनगिनत महान विभूतियों ने पत्रारिता की है. और कईं पत्र-पत्रकाओं के सम्पादक के रूप में काम किया है. ऐसे में इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि पत्रकारों से भारतीय मानस की उम्मीदें कुछ ज़्यादा हैं. इसे समझने के लिए भारत में पत्रकारिता के इतिहास के पन्ने पलटना बेहद ज़रूरी है.
स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है - इसे हम लेकर रहेंगे, का नारा देने वाले स्वंतत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का निधन जब 31 जुलाई 1920 को हुआ तो मोहनदास करमचंद गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ली और असहयोग आंदोलन का शुभारंभ हुआ । हंटर आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप कार्यवाही पर देश भर में जो आजादी की लहर चली उससे उनके आंदोलन को बल मिला। गांधी जी अपने कार्यक्रम को राष्ट्रव्यापी बनाने में समाचार पत्रों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे। कलकत्ता से भारत मित्र, कलकत्ता समाचार और विश्व बंधु का प्रकाशन होता था। कानपुर से प्रताप का और इलाहाबाद से भविष्य का।
गांधी जी के अहिंसा त्याग और सत्याग्रह के सिद्धांत की सफलता ने भारत का मन मोह लिया था - सारा जनमत गांधी जी के साथ था और अनेक नए शक्तिशाली समाचार पत्रों का प्रकाशन भी आरंभ हुआ। जबलपुर, खंडवा से कर्मवीर का कलकत्ता से स्वतंत्र का, काशी से आज का और कानपुर से वर्तमान का। इसी बीच पंजाब में अमृतसर, लाहौर और गुजरावाला में कलकत्ता में गुजरात के अहमदाबाद, वीरम गांव, नडियाड में जो हिंसक घटनाएं हुई जिनसे गांधी जी को अत्यधिक दुख हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ समाचार छापने पर अधिकांश समाचार पत्र जप्त कर दिए गये। प्रेस बंद कर दिए गए। उन पर जुर्माना कर दिया गया । जुर्माना न पटाने पर जेल की सजा दी गई। अनेक पत्र पत्रिकाएं भूमिगत हो गई । उस समय जितना महत्व गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में कानपुर से निकलने वाले पत्र प्रताप का था उतना ही महत्व मध्य प्रांत में कर्मवीर का था। कर्मवीर के संपादक थे पं. माखनलाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा। उन्होंने मातृभूमि और मनुष्यता पर बलि होने का आव्हान किया और राजद्रोह के अपराध में उन्हें सजा हो गई । कर्मवीर के नाम के प्रेरणा उन्हें उस नाम से मिली जिसके द्वारा उस समय की जनता गांधी जी को संबोधित करती थी। कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा । 63 बार उनके घर और समाचार के दफ्तर की तलाशी ली गई। वर्धा के सुमति और नागपुर के संकल्प के संपादकों को परेशान किया गया धमकी दी गई। फिर दिल्ली से अर्जुन निकला, कलकत्ता से मतवाला और नागपुर से प्रणवीर और श्री शारदा।
महात्मागांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाने का समर्थन करने के लिए मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ जिससे गांधी जी के आंदोलन को बल मिला साथ ही हिंदी की श्री वृद्धि हुई। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती, दुलारे लाल भार्गव द्वारा लखनऊ से प्रकाशित माधुरी रामरख सिंह सहगल द्वारा इलाहाबाद से प्रकाशित चांद तथा उपन्सास सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा वाराणसी से प्रकाशित हंस ने गांधी के सत्य और अहिंसा पर हिंदी का अभिषेक किया। भार्गव ने एक दूसरी पत्रिका सुधा निकाली और रामवृक्ष बेनीपुरी ने वीणा । कुछ पत्रिकाएं सरस्वती की परंपरा से हटकर राजनीतिक विषयों पर भी टिप्पणियां तथा साहित्यिक कृतियां जैसे कविताएं, कहानियां, लेख, निबंध, नाटक आदि भी प्रकाशित करती थीं।
क्रांतिकारियों के दमन तथा खुदीराम बोस, सरदार भगत सिंह को फांसी की सजा, आजाद की हत्या के कारण समाचार पत्र क्रांतिकारियों के साहस और वीरता के गीत गा रहे थे । फांसी पर चढ़ने वाले युवकों के गुण गा रहे थे । स्वराज ने अपने संपादकीय लेख में शंखनाद किया कि देशवासी निद्रा से जागें और देखें कि कितनी बुरी तरह से विदेशी अंग्रेजी ने इस देश का शोषण किया है ।
समाचार पत्रों में संपादकीय लेख लिखे जाने लगे- रोलेट एक्ट पर, पंजाब की दमन नीति पर, जलिया वाला बाग पर, खिलाफत आंदोलन पर, अली बंधुओं एवं अन्य की गिरफ्तारी पर, अहिंसात्मक सत्याग्रह पर, गांधी जी की जेल यात्रा पर, उनकी प्रार्थना सभाओं पर, विदेशी वस्त्रों की होली जलाने पर, चौरा चौरी कांड पर, नमक सत्याग्रह पर, युवराज प्रिंस आफ वेल्स के आगमन के बहिष्कार पर, इस तरह समाचार पत्र राष्ट्रीयता के प्रतीक बन गए ।
भूमिगत समाचार पत्रों के नाम भी खूब थे- चिंगारी, बवंडर, चंद्रिका, रणडंका, शंखनाद, ज्वालामुखी, तूफान, रण चंद्रिका, जन संग्राम बोल दे धावा आदि । उन दिनों पायनियर और लीडर आदि एक-एक आने में, आज आदि दो-दो पैसे में बिकते थे । हाकर चिल्लाता था- ब्रिटिश सरकार की छाती कूटने वाला अखबार इनडिपेंडेंस डे लो । अंतिम चरण में 1942 के भारत छोड़ो करो या मरो आंदोलन के समय प्रेस इमरजेंसी अधिनियम के अंतर्गत समाचार पत्रों को कुचलने का भरसक प्रयास किया गया । दिल्ली के हिंदुस्तान और कितने ही अन्य समाचार पत्र बंद हो गए । देश के प्रस्तावित विभाजन के साथ 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली और समाचार पत्रों का गांधी जी को भरपूर समर्थन मिला उस समय चार प्रमुख दैनिक समाचार पत्र थे, विश्व मित्र, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान और राज । सभी ने उस दिन के अपने अग्रलेख में सारे देशवासियों की भावनाओं को चित्रित करते हुए लिखा-अब वह दिन दूर नहीं जब भारत सभी दिशाओं में उन्नति करता हुआ विश्व का महानतम लोकतंत्र बन जाएगा और विश्व में उसका महत्वपूर्ण स्थान होगा ।
इतिहास के ये पन्ने देश में पत्रकारिता के स्वर्णिम काल की गवाही दे रहे हैं. समय चलता रहता है और वक्त इतिहास में तब्दील हो जाता है, इसलिए इतिहास तो अब भी बन रहा है. टीवी पत्रकारिता इस इतिहास का नया अध्याय है, सवाल ये है कि इस इतिहास में जो चहरे अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं क्या वो इतिहास के उन पुराने चेहरों की बराबरी कर पाएंगे?