Saturday 22 May 2010
जनसत्ता और हिंदुस्तान का शुक्रिया: दिल्ली से योगेश गुलाटी
आपके फोन के ज़रिये ही ये सूचना मिली कि जनसत्ता और हिन्दुस्तान में ब्लाग "दिल्ली से योगेश गुलाटी" का प्रमुखता के साथ ज़िक्र किया गया! आपके इस असीम प्यार के लिये आपका ऋणी हूं! जनसत्ता ने अपने सम्पादकीय पेज पर गरीबी पर लिखी मेरी एक पोस्ट को स्थान दिया, इसके लिये जनसत्ता के सम्पादक मंडल का आभार! इसलिये नहीं कि उन्होंने मेरी पोस्ट को अपने अखबार में स्थान दिया, बल्कि इस्लिये कि उन्होंने गरीबों की आवाज़ को आपतक पहुंचाने का सराहनीय काम किया है! मैं जानता हूं कि महज़ कागज़ काले करने भर से हिन्दुस्तान से गरीबी की ये काली रात बीतने वाली नहीं है! लेकिन जब तक हम सोये रहेंगे और सिर्फ अपने बारे में ही सोचेंगे तब तक वो सुनहरा सूरज हम नहीं देख पायेंगे, जिसकी कल्पना हम बीते छ्ह दशकों से करते आये हैं! दिल्ली में आकर ही मैंने ये जाना कि किस तरह एक तबका कुछ ना करके भी लगातार आगे और आगे बढता जा रहा है...! और किस तरह एक बडा तबका दिन रात मेहनत करके भी दो वक्त की रोटी तक नहीं जुटा पा रहा! जबकि ये सरकार दशकों से गरीबों के हित में काम कर रही है! और हर बार गरीबी हटाने के नाम पर ही हर सरकार सत्ता में आती है! तो फिर क्या वजह है कि हमारी आधी से ज्यादा आबादी बदहाली का शिकार है? गरीबी के इस केंसर का सही इलाज करने की बजाय हमारी सरकारें इस बदरंग तस्वीर को छुपाने की कोशिश करती नज़र आती है! एक विदेशी आकर हमारे एक गरीब गांव को गोद लेता है! क्या यही है एक सशक्त भारत की पहचान? क्या आक्सफोर्ड से आने के बाद एक गरीब की कुटिया में रात बिता देनेभर से उस गरीब को भुखमरी से निजात मिल जायेगी? नरेगा जैसी योजनाये चलाकर झूठी वाहवाही बटोरने से क्या ऎसी योजनायें भ्रष्टाचार की भेंट चढना बंद हो जायेंगी? शिक्षा का निजीकरण करके वैसे भी सरकार ने इसे गरीबों की पहुंच से दूर कर दिया है! और उच्च शिक्षा तो एक गरीब के लिये दिवा स्वप्न की तरह है! जो दो वक्त के रोटी का जुगाड नहीं कर सकता वो लाखों की फीस देकर मेडिकल इंजीनियरिंग या एमबीए की पढाई करने के बारे में कैसे सोच सकता है? यानि गरीबों के लिये आगे बढने की रास्ते ही बंद कर दिये गये हैं! प्राचीन भारत में दबंगों ने वर्ण व्यवस्था को कुछ इस तरह चालाकी के साथ लागू किया कि क्षुद्र का बेटा हमेंशा क्षुद्र ही बना रहा! लगता नहीं कुछ ऎसे ही हालात आज भी हैं?जहां गरीब का बेटा गरीब ही बने रहने को मजबूर है! लेकिन स्वस्थ्य समाज के लिये विषमतायें अच्छी नहीं होतीं! ये विषमतायें अलगाव को जन्म देती हैं! नक्सलवाद के रूप में इस अलगाव का दंश हम भोग रहे हैं! इसलिये समाज और राष्ट्र के सर्वांगीण विकास पर बल देने की ज़रूरत है! सबसे बडी चुनौती जनसंख्या के स्थिरीकरण की है जिसकी तरफ ना तो कोई ध्यान दे रहा है ना ही ये मुद्दा ही बन पाया है! यदि हमारी जनसंख्या इसी गति से बढती रही तो चाहे कितना ज़ोर लगा लें, समाज से गरीबी और विषमता को समाप्त नहीं कर पायेंगे!
क्या ममता सिर्फ बंगाल की रेल-मंत्री हैं?: दिल्ली से योगेश गुलाटी
वो तो एक गरीब ब्राह्मण का बेटा था जिसने मीलों दूर हुई एक रेल दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था! उसे कुर्सी का ज़रा भी मोह नहीं था! वो क्षेत्रवाद या परिवारवाद की राजनीति नहीं करता था! सारा देश उसका घर था इसीलिये वो इस देश का प्रधानमंत्री बना और आज भी ये देश अपने उस लाल पर नाज़ करता है! मुझे उसका नाम लेने की ज़रूरत नहीं क्योंकि आप जानते हैं मैं किसकी बात कर रहा हूं! लेकिन आज राजनीति में ऎसे नेता कहां देखने को मिलते हैं! आज से पहले तक मैं रेलमंत्री ममता बेनर्जी का बहुत सम्मान करता था! मैं उन्हें एक जुझारु महिला नेत्री मानता था जो इस देश की नारी शक्ति का प्रतीक बन सकती थीं! लेकिन हाल ही में दो ऎसी घटनाएं हुईं जिससे मैं तृणमूल कांग्रेस की इस फायरब्रांड नेत्री के बारे में अपने विचारों पर पुनर्विचार करने को मजबूर हो गया! पहला वाकया घटा कुछ दिन पहले नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर ! ये बताने की ज़रूरत नहीं कि इन दिनों दिल्ली में सूरज किस कदर कहर बरसा रहा है! उस तपती दुपहरी में बिहार के हज़ारों यात्री अपने गंतव्य तक जाने के लिये (नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जो कि अपनी अव्यवस्थाओं के लिये पहले से ही खासा मशहूर है, पर) ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे! हिंदुस्तान में लोकल ट्रेन का सफर और वो भी गर्मीं में, ये सफर कितना कष्टदायक होता है! लेकिन गरीब इसके लिये मजबूर हैं! क्योंकि इसके सिवाय और कोई चारा उनके पास नहीं है! बचपन में जब मैं लोकल ट्रेन का सफर किया करता था तो एसी फर्स्ट क्लास की खाली बोगीयों और ठसा-ठस भरी लोकल बोगी को देखकर अपनी मां से ये पूछता था कि एक बोगी में हज़ारों लोग और इतनी सारी बोगीयों में सिर्फ चंद लोग ऎसा क्यों? मां कहती बेटा जब तू बडा होगा तो तुझे खुद ही इस सवाल का जवाब मिल जायेगा! शायद मां ये जानती थी कि बाल-मन गरीबी और अमीरी के इस अंतर को अभी नहीं समझ पायेगा! लेकिन आज भी मुझे उस सवाल का जवाब नहीं मिला है! माना गरीबों को एसी में यात्रा करने का हक नहीं है! लेकिन कम से कम जो टिकिट का पैसा वो देते हैं उसके बदले में उन्हें लोकल ट्रेन में आरामदायक यात्रा करने का हक तो है? हमारी समाजवादी सरकार जो गरीबों के लिये इतनी चिंतित रहती है, जिसने कामनवेल्थ गेम्स के ठीक पहले दिल्ली में गरीबों के लिये मेट्रो चला दी, ( ये अलग बहस का मुद्दा हो सकता है कि उसी सरकार ने दिल्ली से गरीब हटाओ मुहिम भी चला रखी है!) क्या वो लोक कल्याणकारी सरकार गरीबों के लिये ज़्यादा साधरण बोगीयों वाली ट्रेने नहीं चला सकती है? फिर वो रेल मँत्री जो गरीबों की लडाई लडने के लिये बंगाल को अखाडे में तब्दील कर देती हैं और सिंगूर में उद्योगपति रतन टाटा से संग्राम करती हैं, वही ममता बेनर्जी नई-दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड के लिये बिहार के उन गरीब यात्रियों को ही क्यों ज़िम्मेदार ठहराती हैं? अगर ये ट्रेन बिहार की जगह बंगाल जा रही होती क्या तब भी रेलमंत्री का ऎसा ही निष्ठुर बयान आता? इस हादसे ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बदइंतज़ामी की पोल तो खोली ही है, साथ ही भेड बकरीयों की तरह लोकल बोगीयों में ठुसकर यात्रा करने को मजबूर इस देश की आधी से भी ज़्यादा आबादी का दर्द भी बंया किया है! जो ये जानते हैं कि ये यात्रा उनकी अंतिम यात्रा साबित हो सकती है फिर भी लोकल ट्रेनों की साधरण बोगीयों में सफर करने को मजबूर हैं! वो जानते हैं इन लोकल बोगीयों में उनके साथ कोई भी हादसा हो सकता है! इन लोकल बोगीयों में सुरक्षा के भी कोई प्रबंध नहीं होते! रात के सफर के दौरान भी नहीं! शायद सरकार ये सोचती है कि गरीबों को सुरक्षा की क्या ज़रूरत? उनके पास है ही क्या जो लुट सकता है? रही बात गरीबों की जान की तो वो कितनी सस्ती है ये बताने की ज़रूरत नहीं! मुंबई में आज भी लोग लोकल ट्रेनों में लटक कर और उसकी छतों पर सफर करते हैं! सवाल ये है कि क्या वो ये रिस्क अपनी मर्ज़ी से उठाते हैं या वो ऎसा करने को मजबूर हैं? रेल मंत्रालय ने अमीर तबके लिये तो लक्ज़री यात्रा के तमाम प्रबंध किये हैं! और वो उनकी सुविधाओं का पूरा-पूरा ख्याल भी रखता आया है! लेकिन हमारी समाजवादी सरकार ने लोकल ट्रेन में सफर करने वाले गरीब वर्ग की तकलीफों को दूर करने की कोई कोशिश कभी क्यों नहीं की? क्या हमारी रेल मंत्री एक आम भारतीय की तरह लोकल ट्रेन में सफर कर सकती हैं? मैं दावे के साथ कह सकता हूं नहीं! तो फिर इस देश की आधी से ज्यादा आबादी को इतना कष्टदायक सफर करने के लिये मजबूर क्यों बना दिया गया है? मुझे याद है जब मैं कालेज में पढता था, मैंने कहीं जाने के लिये ट्रेन का टिकिट खरीदा! ट्रेन दो घंटे लेट थी! इतने इंतज़ार के बाद जब ट्रेन आई तो मैं हैरान था, क्योंकि ट्रेन की लोकल बोगी में पैर रखने तक की जगह नहीं थी! फिर भी लोग उसमें घुसे चले जा रहे थे! लेकिन खचा-खच भरी उस लोकल बोगी में घुसने की मेरी हिम्मत नहीं हुई! जाना चूंकि ज़रूरी था और मैं वो ट्रेन मिस नहीं कर सकता था, इसलिये मैंने फर्स्ट क्लास की खाली बोगी में सफर करने का फैसला किया! जब टीसी ने टिकिट चेक किया तो साधारण श्रेणी का टिकिट देख कर उसने मुझे फाईन भरने को कहा! उस वक्त समाजवाद से कुछ ज़्यादा ही प्रभावित था सो कह दिया, मैं अपनी मर्ज़ी से अमीरों की बोगी में नहीं चढा, आपका रेलवे फर्स्ट क्लास की तो इतनी बोगी ट्रेन में लगवाता है क्या कुछ लोकल बोगीयां नहीं लगा सकता? टीसी ने कहा, अगर इस ट्रेन में जगह नहीं थी तो आपको अगली ट्रेन का इंतज़ार करना चाहिये था! क्या आम आदमी के वक्त की कीमत नहीं होती? और क्या आपको लगता है कि अगली ट्रेन की लोकल बोगी खाली होगी? मैंने एक और सवाल दाग दिया! मेरे समाजवादी सत्याग्रह से झल्लाकर टीसी आगे बढ गया! खैर मैं बात रेल मंत्री की कर रहा था! हमारी रेलमंत्री का कहना है कि दिल्ली उनका घर नहीं है! उनका घर तो बंगाल में है! इस बयान से क्षेत्रवाद की बू आती है! हैरानी की बात ये है कि कांग्रेस रेलमंत्री के इस बयान का समर्थन कर रही है! क्षुद्र् राजनीतिक स्वार्थ किस कदर हावी हैं कि राष्ट्रीय पार्टीयां भी उनका समर्थन करने को मजबूर हैं! लेकिन ये सिर्फ भारत में ही हो सकता है जब गैर ज़िम्मेदाराना बयानों के लिये दो केन्द्रीय मंत्रीयों को फटाकार और एक को निष्कासित किया जाता है तभी लगातार गैरज़िम्मेदाराना बयानों के लिये एक केन्द्रीय मंत्री का समर्थन भी किया जाता है!
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