Sunday 29 March 2009

नफ़रत की राजनीति!




गुजरात हाई कोर्ट ने राज्य की महिला तथा बाल विकास राज्य मंत्री मायाबेन कोडनानी की अग्रिम जमानत अर्जी खारिज कर यह संदेश दिया है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य के मूलभूत सिद्धांतों और संवैधानिक मूल्यों से खिलवाड़ करने वाले लोग कानून को कुछ दिनों तक धोखा देने में भले ही कामयाब हो जाएं पर वे उसके शिकंजे से बच नहीं सकते। अदालत ने यह निर्णय देते हुए कहा कि धर्मांध लोग आतंकवादियों से कम नहीं हैं। इस निर्णय के बाद कोडनानी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और विशेष जांच दल (एसआईटी) के कार्यालय में सरेंडर कर दिया। हाई कोर्ट के इस फैसले ने नरेंद्र मोदी सरकार को एक बार फिर कठघरे में खड़ा कर दिया है। राज्य के अनेक सामाजिक संगठन शुरू से ही यह कहते रहे हैं कि वर्ष 2002 के दंगों के लिए राज्य का नेतृत्व वर्ग और पुलिस-प्रशासन का एक तबका भी जवाबदेह रहा है, लेकिन मोदी ने इसे मानने से हमेशा इनकार किया। कोडनानी के मामले में अब वह क्या कहेंगे? कोडनानी ने एक जन प्रतिनिधि होकर भी संवैधानिक ही नहीं मानवीय मूल्यों की भी धज्जियां उड़ाईं। उन पर नरोदा पाटिया में दंगाइयों की भीड़ को उकसाने और हथियार बांटने का आरोप है। इतना ही नहीं, जब उनके खिलाफ जांच शुरू हुई तो उन्होंने कानून की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी ने उन्हें मंत्रिमंडल में रखा और परोक्ष रूप से उनका बचाव भी किया। वह तो यह भी मानने से इनकार करते रहे हैं कि तत्कालीन पुलिस अधिकारियों ने दंगों को रोकने में कोई ढिलाई बरती। लेकिन उनके दावे की कलई पिछले महीने तब खुल गई जब एसआईटी ने एक डीएसपी को ड्यूटी में लापरवाही बरतने और सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप में गिरफ्तार किया। एसआईटी ने कुछ और अफसरों की संदिग्ध भूमिका की ओर भी इशारा किया है, जिनमें एक सेवानिवृत्त अडिशनल डीजीपी भी हैं। आश्चर्य तो यह है कि गुजरात दंगे को लेकर राज्य सरकार की ओर उंगली उठने के बाद भी बीजेपी शर्मसार नहीं हुई, बल्कि पार्टी में नरेंद्र मोदी का कद और बढ़ गया। उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने तक की मांग उठी। उन्हें विकास पुरुष के रूप में प्रॉजेक्ट करके पार्टी ने उनके दामन पर लगे दाग को धोने की कोशिश की। लेकिन समाज में नफरत फैलाकर, संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रखकर विकास का कोई भी कदम व्यर्थ है। कई देशों में तानाशाही की व्यवस्था में जबर्दस्त आर्थिक तरक्की हुई है, लेकिन जनता ने कभी उस व्यवस्था को पसंद नहीं किया। यह दुर्भाग्य है कि बीजेपी जनतंत्र और विकास की बात करते हुए भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती। एक तरफ तो वह देश में सच्चा सेक्युलरिज्म लाने की बात करती है, लेकिन दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय के खिलाफ वरुण गांधी के उत्तेजक भाषण का समर्थन करती है और उनके बचाव में चुनाव आयोग तक पर निशाना साधती है। कोडनानी पर गुजरात हाई कोर्ट के फैसले से बीजेपी को सबक लेना चाहिए कि नफरत की राजनीति इस देश में कभी कामयाब नहीं हो सकती।


कब तक रहेंगे पीछे?


आईटी में भारत के विश्व महाशक्ति बन जाने की बात पिछले कई सालों से कमोबेश उसी तरह कही जा रही है, जैसे कुछ समय पहले तक भारत एक कृषि प्रधान देश है जैसे जुमले बोले जाते थे। लेकिन हमारे नेताओं को अगर चुनावी गहमागहमी के बीच कुछ वक्त मिले तो उन्हें वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की सालाना इन्फर्मेशन ऐंड कम्यूनिकेशन टेक्नॉलजी की रिपोर्ट देख लेनी चाहिए। नेटवर्क रेडिनेस इंडेक्स (एनआरआई) के पैमाने पर दुनिया के 134 देशों में भारत की जगह पिछले 3 सालों में 44वीं से खिसक कर 50वीं और अब 54वीं हो गई है। इस एनआरआई की गणना सूचना और संचार के उपकरणों की बिक्री, इससे जुड़े कानूनी तथा आधारभूत ढांचे; इस संबंध में व्यक्तियों, व्यापारिक घरानों और सरकार की तैयारी तथा सूचना तथा संचार प्रौद्योगिकी की नवीनतम तकनीकों के जमीनी इस्तेमाल के आधार पर की जाती है। इनके आधार पर भारत का एनआरआई अब से छह साल पहले 4.03 का निकाला गया था और तब से लेकर आज तक यह वहीं का वहीं पड़ा है। इस ठहराव का नतीजा यह है कि आईटी के क्षेत्र में हमसे काफी बाद में आए देश तेजी से हमसे आगे निकलते जा रहे हैं। एक सी आबादी और आजादी के एक से समय को ध्यान में रखते हुए भारत की तुलना अक्सर चीन से की जाती है। आईटी के मामले में हम अभी तक ताल ठोक कर चीन को खुद से काफी पीछे साबित करते आए हैं। पिछले साल एनआरआई की नाप पर दुनिया में चीन का मुकाम 57वां और भारत का 50वां था, यानी भारत चीन से सात स्थान आगे था। लेकिन सिर्फ एक साल में पासा ऐसा पलटा कि चीन 46वें स्थान पर आ गया जबकि हम 54वें पर, यानी उससे आठ स्थान पीछे चले गए। ऐसा क्यों हुआ, इसका अध्ययन पूरी गंभीरता से और तत्काल किया जाना चाहिए, वरना औद्योगिक टेक्नॉलजी में अपने पिछड़ेपन की भरपाई सूचना टेक्नॉलजी से कर लेने का हमारा सपना इस बार की चूक के बाद सपना ही रह जाएगा। कुछ बातें साफ हैं और बिना किसी विशेष अध्ययन के ही रेखांकित की जा सकती हैं। सूचना और संचार हमारे यहां खुद में भले ही एक कामयाब धंधा समझा जा रहा हो, लेकिन आम लोगों की रोजी-रोटी से इसका जैसा जुड़ाव बनना चाहिए, वह बन नहीं पा रहा है। आखिर क्यों ब्रॉडबैंड इंटरनेट भारत में एक उच्च-मध्यवर्गीय सुविधा बन कर रह गया है? मोबाइल फोन का इस्तेमाल जिस तरह हम सब्जी और कबाड़ तक के खुदरा कारोबार में होते देख रहे हैं, वैसी कोई भूमिका कंप्यूटर और इंटरनेट के लिए भी क्यों नहीं खोजी जा पा रही है? जिन देशों में यह काम हो रहा है वहां ब्रॉडबैंड विशेषाधिकार के दायरों से निकल कर नियमित घरेलू इस्तेमाल की चीज बनता जा रहा है। जाहिर है, यह दृष्टि की, विजन की समस्या है, जिसे हल करने की जिम्मेदारी देश के राजनीतिक और व्यापारिक नेतृत्व की है। इसे अजंडा पर लाए बगैर आईटी में अपनी काबलियत के गुण गाने का कोई अर्थ नहीं है।