Sunday 10 May 2009

क्यों न हमारे देश में भी अनिवार्य हो मतदान!


मौजूदा चुनाव में खासकर महानगरों में कम मतदान की खबरों के बीच लालकृष्ण आडवाणी ने मतदान को अनिवार्य करने की पैरवी की। इस पर कुछ लोगों की प्रतिक्रिया थी कि ऐसा करना लोकतंत्र विरोधी होगा। कुछ ने कहा कि मतदान के लिए बल प्रयोग अनुचित है। वामपंथियों की प्रतिक्रिया मौलिक थी। उन्होंने कहा कि यह कोई नया विचार नहीं है, पहले भी इसकी वकालत की जाती रही है।
मैं समझता हूं यह ऐसा विचार है जिस पर विचार का समय अब आ गया है। इसलिए नहीं कि यह मतदाताओं को बाहर निकालने का सबसे अच्छा तरीका है (सबसे अच्छा तरीका तो यही होगा कि वे स्वेच्छा और स्वप्रेरणा से वोट देने आएं) बल्कि इसलिए कि मतदान का प्रतिशत अगर इसी तरह गिरता रहा तो भारतीय लोकतंत्र को गहरा धक्का पहुंचेगा। भारत में आज राजनीति का स्वरूप और उसमें जनभागीदारी को देखते हुए यह एक ऐसा विचार है जो हमारी राजनीतिक प्रणाली को बदल सकता है। यह पार्टियों और जनता के बीच संवाद व रिश्तों में भी आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है।
सबसे पहले तो इससे हमारी संसदीय प्रणाली में प्रतिनिधित्व बढ़ सकेगा। कैसे? मौजूदा प्रणाली को देखिए। मान लें कि आप 40 मतदाताओं वाले एक निर्वाचन क्षेत्र से उम्मीदवार हैं। इनमें से 22 यानी 55 प्रतिशत वोट ही नहीं देते। बाकी 18 में चार आपको वोट देते हैं, तीन किसी दूसरे उम्मीदवार को, दो-दो वोट दो अन्य उम्मीदवारों को और सात अन्य को एक-एक वोट मिलता है।
इस तरह 40 में से कुल चार यानी 10 फीसदी मतदाताओं के समर्थन से आप ‘जन प्रतिनिधि’ बन जाते हैं। 1952 में स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव से यही स्थिति रही है। मतदान को अनिवार्य बना देने से इस हालत में सुधार हो सकता है।
चूंकि ज्यादातर मतदाता वोट नहीं डालते, इसलिए किसी भी उम्मीदवार के लिए मतदाताओं के किसी एक समुदाय को लामबंद करने के लिए जाति या संप्रदाय का कार्ड खेलना आसान हो जाता है। अनिवार्य मतदान का नतीजा यह होगा कि अगर एक निर्वाचन क्षेत्र में 30 फीसदी मतदाता किसी एक समुदाय के और 70 फीसदी किसी अन्य समुदाय के हैं, तो कोई भी पार्टी या उम्मीदवार किसी संकीर्ण एजेंडे पर चुनाव नहीं जीत सकती, क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय उसे खारिज कर देगा।
अगर मतदान अनिवार्य हो जाए राजनेताओं को सभी मतदाताओं से जुड़ने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इसके चलते उन्हें अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। इसके अलावा जब मतदान अनिवार्य होगा, तब मतदाता को भी यह छानबीन भी करनी होगी कि कौन-सा उम्मीदवार कैसा है।
इस कवायद से राजनीतिक प्रणाली में मतदाता की रुचि नए सिरे से जागृत हो सकती है। इसके साथ अगर मतदाता को ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ पर बटन दबाने का भी विकल्प मिल जाए तो सोने पर सुहागा हो जाएगा। अगर बड़ी संख्या में मतदाता सभी उम्मीदवारों को खारिज करके यह विकल्प चुनते हैं तो यह अपने आप में अहम संदेश होगा। इससे राजनीतिक पार्टियां मतदाता पर ज्यादा ध्यान देने को बाध्य होंगी और यह हमारे देश में सचमुच बड़ा बदलाव होगा।
हम अपने नेताओं को पहले ही बहुत कोस चुके हैं। सवाल यह है कि समस्या क्या सिर्फ नेता ही हैं, जनता नहीं? मौजूदा विकल्पों से बार-बार की नाराजगी से उपजा मोहभंग समझ में आता है। लेकिन आज स्थिति कुछ और भी नजर आती है। कई शहरों में मतदान के दिन को छुट्टी का दिन समझा जाता है। वोट नहीं देने वालों में संपन्न तबका सबसे आगे है।
जहां तक विरोध प्रदर्शनों में मोमबत्तियां जलाने वाले युवाओं की बात है, तो उनके बारे में हाल ही में सेवानिवृत्त मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने एक दिलचस्प बात कही थी - 18 से 25 वर्ष की उम्र के मतदाताओं में से 70 फीसदी ने अपने को मतदाता सूचियों में दर्ज ही नहीं करवाया।
लिहाजा मतदाताओं को अब बताना होगा कि वोट देना अधिकार ही नहीं, कर्तव्य और जिम्मेदारी भी है। यह अधिकार भारतीयों को आसानी से हासिल नहीं हुआ है। अलबत्ता जो लोग अनिवार्य मतदान के बाद भी वोट देने नहीं आते, उनके विरुद्ध कठोर दंडात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए।
जिन तीस से ज्यादा देशों में मतदान अनिवार्य है, कहीं भी इस मामले में सख्त सजा का प्रावधान नहीं है। वहां ज्यादा से ज्यादा जुर्माना होता है और बीमार होने की स्थिति में वोट नहीं देने की भी छूट है। जिन देशों में अनिवार्य मतदान है, वहां न सिर्फ मतदान प्रतिशत खासा अच्छा है, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघनों की भी ज्यादा चर्चा नहीं है।
भारत में भी इस पर व्यापक बहस का अब समय आ गया है। हो सकता है यह बहस ही उदासीन मतदाताओं में कुछ रुचि पैदा कर सके।

अनपढ़ मां की जिद ने बनाया आईएएस



अहमदाबाद प्रकाश कंवर को अपने अनपढ़ होने का मलाल था, लेकिन साधारण परिस्थिति में गुजर-बसर करते हुए आज अपनी बेटी डॉ. रतनकंवर गढ़वी चारण (24) को आईएएस बना देखकर वे गौरवान्वित हैं।
रतनकंवर ने पहले अपनी मेहनत से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की और इस वर्ष यूपीएससी की परीक्षा में 124वीं रैंक हासिल करने में कामयाब रही। यहां के मणिनगर में हरिपुर इलाके की धीरज सोसायटी में रहने वाली रतनकंवर के पिता हड़मत सिंह आलू और प्याज के व्यापारी हैं।
उन्होंने बताया कि उनकी बेटी बचपन से ही पढ़ाई में होशियार रही है। दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में उसने 91 फीसदी से ज्यादा अंक प्राप्त किए।
मां की इच्छा पूरी की
रतनकंवर के दो भाइयों भवदेव और सिद्धार्थ ने बताया कि मां ने तीनों बच्चों को उच्च शिक्षा और तरक्की के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया। इसके चलते भवदेव ने बीई-आईटी व एमबीए और सिद्धार्थ ने बीटेक किया तो रतनकंवर ने एमबीबीएस करने बाद आईएएस बनने की ठानी। भाइयों का कहना है कि आईएएस बनकर रतनकंवर ने मां की वर्षो पुरानी इच्छा पूरी कर दी है।
सफलता का श्रेय मां को रतनकंवर ने भी अपनी सफलता का श्रेय मां को देते हुए बताया, ‘डॉक्टर बनने के पहले और यूपीएससी की परीक्षा की तैयारी के दौरान ऐसा लगता था जैसे मां को ही परीक्षा देनी है। वे मेरे साथ पूरी रात जागती रहती थीं।’
मैं कभी स्कूल नहीं गई। इसका मुझे दु:ख था, लेकिन बेटी की सफलता से मुझे बहुत संतोष मिला है। लगता है जैसे मैंने ही पढ़ाई पूरी कर ली है।’
- प्रकाश कंवर (आईएएस बनने वाली रतनकंवर की मां)