Wednesday 18 November 2009

हिँदी मेँ शिक्षा कहीँ षड्यँत्र तो नहीँ?

वैसे तो बात ज़्यादा पुरानी नहीँ है....लेकिन बहुत पुरानी हो चली है! अगर आप देश की आज़ादी के वक्त मेँ लौटेँ तो आपको ये बात बस कल की ही बात लगेगी! बात पुरानी उनके लिये है जिन्होँने तरक्की की रह पकड ली है! जो लोग आर्थिक उदारीकरण के रथ पर सवार होकर दुनिया के सारे सुख और सुविधाओं का मज़ा ले रहे हैँ...! वो भला सन सैँतालिस की उस काली रात मेँ क्युँ लौटना चाहेँगे? लेकिन ऐसे लोगोँ की सँख्या बहुत ही कम है! सरकारी आकडोँ के मुताबिक आज भी चालीस फीसदी से ज़्यादा लोग गरीबी की रेखा से नीचे बसर कर रहे हैँ! तो उनके लिये सन सैँतालिस की वो रात पुरानी नहीँ है! क्योँकि उंनकी वो रात तो अब तक नहीँ बीती! आज़ादी का सूरज उन्होँने नहीँ देखा! वो तो आज भी गरीब, लाचार और मजबूर हैँ!
चलिये अब बात पर आते हैँ ! तो बात है देश के सँसाधनोँ के बटवारे की! अगर आप भारतीय सवतंत्रता सँग्राम का इतिहास उठा कर देँखेँ तो आप पायेँगे कि इसकी नीँव समाजवादवाद मेँ है! ये समाजवाद गाँधी से भी पुराना है! भारतीय सवतँत्रता के इतिहास मेँ पहला अँग्रेज विरोधी सँघर्ष था सँयासी विद्रोह! जिसका उल्लेख बँकिम चँद्र चटर्जी ने अपने उपन्यास आनँद मठ मेँ किया है! केना सरकार और दिर्जिनारायण के नेतृत्व मेँ सन 1760 मेँ शुरु हुआ ये विद्रोह 1800 तक चला! बिहार और बँगाल मेँ हुए इस विद्रोह मेँ देश की गरीब जनता ने बढ- चढ कर हिस्सा लिया! ये हिँदुस्तान मेँ अँग्रेजोँ को दी गई पहली चुनौती थी! जो सीधे गरीब जनता ने दी थी! जिसकी जड मेँ था समाजवाद का बीज! और समाजवाद का यही बीज आने वाले सालोँ मेँ ब्रितानी हुकूमत के लिये मुश्किलेँ खडी करता रहा! फकीर विद्रोह(1776), चुआरो विद्रोह(1798), पालीगरोँ का विद्रोह(1799), भील विद्रोह(1825), रामोसी विद्रोह(1822), पागलपँथी विद्रोह(1825), खासी विद्रोह(1833), नील विद्रोह(1854), जैसे दर्जनोँ विद्रोहोँ की गाथाओँ से भरा पडा है भारतीय स्वतँत्रता का इतिहास! (क्या कहा आपने नहीँ पढा कभी)
कहीँ ना कहीँ देश की आज़ादी के अगुआ इस बात को अच्छी तरह समझ गये थे कि समाजवाद के बल पर ही आज़ादी की मँज़िल को पाया जा सकता है! समाजवाद ही वो शक्ति है जिसके दम पर गरीब भारत की जनता एक साथ ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ खडी हो सकती है! शायद यही कारण था कि महात्मा गाँधी ने “ग्राम स्वराज” की कल्पना की थी! समाजवाद के लिये भारत की गरीब जनता ने दो सौ साल तक लडाइ लडी! आखिर हमने समाजवाद के बल पर स्वराज पा ही लिया! स्वराज तो आ गया लेकिन वो समाजवाद जिसके लिये भारत की आम जनता ने लँबी लडाइ लडी थी! उसे भुला दिया गया! हालाकि देश के पहले प्रधानमँत्री पँडित नेहरु समाजवाद के प्रबल पक्षधर थे! वो खुली आँखोँ से समाजवाद का सपना देखते थे! लेकिन वो भी देश की गरीब जनता के बीच सँसाधनोँ का सही बटॅवारा नहीँ करा सके! अभी भी किसान को ज़मीन पर मालिकाना हक नहीँ मिला था! आज़ादी के बाद भी ज़मीदार और रजवाडोँ की शान कायम थी! और देश की गरीब जनता के पास खाने के लिये अन्न नहीँ था! गाँवोँ की दशा बेहाल थी! किसान कर्ज़ मेँ डूबा था! और मज़दूर से बेगारी कराई जा रही थी! विनोबा भावे के भू आँदोलन ने किसानोँ के ज़ख्मोँ पर मरहम लगाने का काम ज़रूर किया लेकिन ये पर्याप्त नहीँ था!
खैर हम बात कर रहे थे सँसाधनोँ के बँटवारे की! सन 47 मेँ सबसे बडा सवाल यही था कि देश के सँसाधनोँ पर पहला हक किसका हो? पूँजीपतियोँ और ज़मीनदारोँ का ?
या गरीबोँ और आदिवासियोँ का? दुर्भाग्य से अँग्रेज़ोँ के जाने के बाद भी सत्ता पर पूँजीपतियोँ और ज़मीनदारोँ का ही वर्चस्व कायम था! लेकिन समाजवाद के नाम पर बलिदान देने वाली भारत की गरीब जनता के बलिदान को इतनी जल्दी कैसे भुलाया जा सकता था? इसलिये तय हुआ कि देश मेँ मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई जायेगी! यानी समाजवाद और पूँजीवाद दोनोँ साथ- साथ चलेँगे! अमीर और गरीब हिल-मिल कर रहेँगे!
(यानि देश की आम जनता को अभी और बलिदान देना था!)
श्रम के बिना पूँजी का कोई अस्तित्व नहीँ! श्रम ही वो साधन है जो पूँजी को बढाता है! पूँजी(पूँजीपति) और श्रम( गरीब जनता) दोनोँ मिलकर देश के पुनर्निर्माण के कार्य मेँ जुट गये! दोनोँ की मेहनत रँग लाई! इसीलिये कभी सपेरोँ का देश के नाम से जाना जाने वाला भारत आज दुनिया की उभरती हुई महाशक्ति है! लेकिन क्या आपने कभी भारत के गाँवोँ से गुज़रने वाली लोकल ट्रेनोँ मेँ सफर किया है? यदि हाँ तो आपको सन सैँतालिस और आज के भारत मेँ ज़्यादा अँतर नज़र नहीँ आयेगा!

अब आप कहेँगे कि मेरे इस लेख का शीर्षक समाजवाद होना चाहिये था....हिँदी मेँ शिक्षा का इन सब से क्या सँबँध? तो जनाब सँबँध बडा गहरा है! फिलहाल रात गहरा गई है लेकिन बात अभी बाकी है.......
क्रमश: