Thursday 11 February 2010

सभी गुमनाम हैँ सर!

रोज़ आफिस आफिस जाते वक्त उसे देखता था! तो उसके ज़िन्दा होने पर मुझे आश्चर्य होता था! वो जिसके शरीर पर हड्डियोँ का ढाँचा नज़र आये वो शख्स ज़िँदा हो तो आश्चर्य तो होगा ही! गुमनाम था वो शख्स! इसलिये नहीँ कि उसका कोई नाम नहीँ था! उसका भी कोई नाम तो रहा होगा! लेकिन किसी को जब उसके होने या ना होने से ही कोई फर्क नहीँ पडता था, तो फिर उसके नाम के होने का भी क्या मतलब रह जाता था! शायद इसी लिये आस-पास के लोग उसे गुमनाम कहते थे! उम्र कोई तीस से पैँतीस के बीच! हर आने-जाने वाले को वो बस देखता था! बोलता कुछ नहीँ था! लेकिन जाने क्योँ मुझे लगता था कि उसकी आँखेँ बहुत कुछ कह रही हैँ! पूरी एक दास्तान थी उसकी आँखोँ मेँ इस बात का यकीन है मुझे! कुछ तो कहानी रही होगी उसकी भी! यही सोच कर मैँने आस-पास के लोगोँ से उसके बारे मेँ जानना चाहा..! लेकिन दिलवालोँ की इस दिल्ली मेँ किसी के पास इतना वक्त नहीँ था कि वो एक गुमनाम शख्स के बारे मेँ मुझसे बात कर सके!
सर्दी अपना कहर ढहा रही थी ! और हम सर्दी को जम कर कोस रहे थे! सुबह के शिफ्ट मेँ न्यूज़ बुलेटिँस की ज़िम्मेदारी मुझ पर थी इसलिये सबेरा होने के पहले ही ड्राइवर मुझे लेने पहुँच जाता था! लेकिन गिरते पारे और कहर बरसाते कोहरे से सारी दिल्ली परेशान थी! ना तो पारा चढने का नाम ले रहा था ना ही कोहरा कम होने का! सुबह आफिस से फोन आया, “ सर दस मिनिट मेँ ड्राईवर आपके पास पहुँच जायेगा!” तैयार होकर जब मैँ नीचे पहुँचा तो मुझे अपनी इस जल्दबाजी पर अफसोस हुआ! क्योँकि सर्दी इतनी ज्यादा थी कि खुले मेँ एक मिनिट भी पहाड जैसा लग रहा था! जबकि मैँने गर्म कपडे पहने थे! कुछ ही देर मेँ गाडी आ गई, तो ड्राईवर ने भी मुझसे वही सवाल किया जिस बेवकूफी पर मैँ खुद को कोस रहा था! उसने कहा,- इतनी सर्दी मेँ आप पहले से ही बाहर क्योँ आ गये? मैँ जल्दी से गाडी मेँ बैठा,और ड्राईवर ने गाडी बढाई! आगे कुछ दूर मोड पर पहुँच कर मेरी नज़र शीशे से बाहर गई तो मैँ हैरान रह गया! फुटपाथ पर एक शख्स खुद को समेट कर सर्दी से बचने की नाकाम कोशिश कर रहा था! उसके पास एक चादर भी नहीँ थी! और उसके कपडे फटे हुए थे! ये जानने के लिये कि वो कौन है और इतनी सर्दी मेँ फुटपाथ पर क्या कर रहा है? मैँने ड्राईवर से गाडी रोकने को कहा! गाडी से उतर कर मैँ उसके पास पहुँचा तो देखा ये तो वोही शख्स है जिसे लोग गुमनाम कहते हैँ! तभी ड्राईवर चिल्लाया, “सर दिल्ली के फुटपाथ पर हज़ारोँ लोग ऐसे ही रात गुज़ारते हैँ! जल्दी कीजिये आफिस के लिये लेट हो रहा है!” मेरे कदम पीछे मुडे और ड्राएवर ने सुनसान सडक पर गाडी दौडा दी! दिन भर आफिस मेँ खबरोँ के शोर मेँ उलझा रहा! लेकिंन खबरोँ के इस शोर मेँ मुझे उस “गुमनाम” की खामोश दास्तान सुनाई दे रही थी इसलिये मैँने इनपुट से कहा कि इस कडाके की सर्दी मेँ दिल्ली के फुटपाथोँ पर सोने वाले बेघर लोगोँ पर एक स्टोरी करो!
शाम को आफिस से लौटते वक्त मैँ गर्म कपडोँ की एक दुकान मेँ पहुँचा! मैँने एक कँबल खरीदा और सोचने लगा जब ये कँबल “गुमनाम” को दूँगा तो वो कितना खुश होगा? कँबल लेकर जब उस चौक के करीब पहुँचा तो देखा गुमनाम वहाँ नहीँ है! मैँने उसे आस-पास देखा, लेकिन वो मुझे कहीँ दिखाई नहीँ दिया! मुझे कँबल लिये घूमते देख एक दुकानदार ने मुझसे सवाल किया, किसे ढूँढ रहे हैँ आप? गुमनाम को.....यही बुलाते हैँ ना आप उसे? मैँने कहा! देर कर दी आपने! एमसीडीए वाले ले गये हैँ उसे! सुबह सर्दी से उसकी मौत हो गई! उसके इन शब्दोँ ने मुझे निशब्द कर दिया!
दूसरे दिन रिपोर्टर ने सर्दी मेँ फुटपाथ पर सोने वाले बेघर लोगोँ पर वो स्टोरी फाईल की जो मैँने करने को कहा था! वो मेरे पास आया और उसने कल सर्दी से हुई मौतोँ का आकडा बताया...24. उसने कहा स्टोरी कैसी लगी सर? मैँने कहा इसमेँ एक “गुमनाम” भी है! रिपोर्टर बोला ठँड से मरने वालोँ का कोई नाम नहीँ है, सभी गुमनाम हैँ सर !

माई नेम इज़ “कामन मेन”

कोई कहता है माई नेम इज़ खान...तो कोई कहता है माई नेम इज़ ठाकरे! तो सोचा आज मैँ भी बता ही दूँ कि माई नेम इज़ कामन मेन! शाहरुख की फिल्म की रिलीज़ के ठीक पहले ये बात बताना इसलिये भी मुझे ज़रूरी लगा कि ठाकरे और खान की इस महाभारत मेँ सरकार ने मुझे भुला दिया है! मेरी जान की कोई कीमत नहीँ है! मेरी ज़िँदगी और मौत बस एक आँकडा है! सरकारी आँकडा! मेरे साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है! गुँडे-बदमाश, अँडरवर्ल्ड और आतँकवादी सभी मेरी जान के पीछे पडे हैँ! लेकिन सरकार को मेरी कतई चिँता नहीँ है! उसे चिँता है तो इस बात की कि शाहरुख की फिल्म रीलीज़ हो जाये! और आईपीएल वक्त पर हो जाये! इसीलिये तो मेरी प्यारी सरकार ने मुँबइ को छावनी मेँ तब्दील कर दिया है! ऐसा उसने पहले कभी नहीँ किया! तब भी नहीँ जब मुँबई की लोकल ट्रेनोँ मेँ हुए आतँकी हमलोँ मेँ मैँ मारा जा रहा था! आजकल कोई मराठी मानुष की बात कर रहा है तो किसी को उत्तर भारतीयोँ की चिँता सता रही है! लेकिन मुझे भूल गये...... मुम्बई का डिब्बेवाला और बिहार का रिक्शे वाला..... वो मैँ ही तो हूँ! एक आम भारतीय! खान भी मैँ ही हूँ और ठाकरे भी तो मैँ ही हूँ! वैसे सरकार ने ये पहली बार नहीँ किया है! वो तो मुझे आज़ादी के बाद से ही भूलती आई है! मैँ एक आम आदमी हूँ जिसे “आम” समझ कर जिसने चाहा चूमा और जम कर चूसा! ये सिलसिला आज भी जारी है ! अब तो मुझमेँ गुठलियोँ के सिवाय कुछ बचा ही नहीँ है! लेकिन फिर भी सरकार की सारी कल्याणकारी योजनाओँ का केन्द्र मैँ ही हूँ! हाँ वो मैँ ही हूँ जिसके कल्याण लिये पास होती हैँ कईँ योजनाएँ और बटता है अरबोँ का फँड ! फिर भी मैँ भूख से मर रहा हूँ! ना मेरा कोई भविष्य है ना ही मेरे बच्चोँ का! मेरे बच्चे खैराती स्कूलोँ मेँ तालीम के नाम पर अपना वक्त बरबाद कर रहे हैँ! उन्हेँ हिँदी मेँ शिक्षा दी जा रही है! जबकि सरकार ये जानती है कि सरकारी दफ्तर हो या मल्टी नेशनल कँपनी अँग्रेज़ी के बिना कहीँ नौकरी नहीँ मिलती! डाक्टरी, इँजीनियरिँग, कानून, एमबीए, सारी बडी डिग्रीयाँ कानवेँट मेँ पढे अमीरोँ के बच्चोँ को ही बाटी जा रही हैँ! ऐसे मेँ अगर मेरा बच्चा सरकारी बिजली के खँबे के नीचे पढ कर अँग्रेज़ी सीख भी जाता है तो, उसे लाखोँ रुपये खर्च कर महँगी डिग्रीयाँ दिलाना मेरी औकात के बाहर की बात है! मेरे पास तो दो वक्त की रोटी का भी जुगाड नहीँ! तो फीस के लिये लाखोँ रुपये कहाँ से लाउँगा? क्योँकि मैँ एक आम आदमी हूँ! और मेरे बच्चे आम ही बनने के लिये मजबूर हैँ! खास तो ठाकरे साहब हैँ....! खास तो किँग खान हैँ.....! क्योँकि ठाकरे साहब ये जानते हैँ कि राजनीति के लिये ताकत का इस्तेमाल कब और कहाँ करना चाहिये! किँग खान भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैँ, कि विवादोँ से फिल्मोँ को फायदा ही नहीँ पहुँचता बल्कि अवार्ड भी मिलते हैँ! विदेशोँ मेँ जाकर अब वो ये बता सकते हैँ कि अपने ही देश मेँ उनकी फिल्म का कितना विरोध हुआ! खास है हमारी पुलिस जो अँडरवर्ल्ड और आतँकीयोँ से लडॅने मेँ कभी इतनी तैयार नहीँ दिखी जितनी इस फिल्म को रिलीज़ कराने के लिये मुस्तैद है! खास है हमारी सरकार जो आम आदमी यानि मेरे लिये साठ सालोँ से सोच-सोच कर बूढी हो गई है! मेरा क्या है मैँ तो आम आदमी हूँ! मैँ महँगाई के बोझ तले दबा जा रहा हूँ! लेकिन किसी को इसकी कोई फिक्र नहीँ! उल्टा सरकार कीमतेँ बढाने की तैय्यारी कर रही है! आटा-दाल मेरी पहुँच से बाहर की बात हो गये हैँ! चीनी खाना तो मैँ शरद पँवार साहब के सुझाव देने के पहले ही छोड चुका था! क्योँकि मैँ जानता हूँ कि ज़्यादा चीनी से डयबटीज़ हो जाता है! पर क्या पँवार साहब ने चीनी खाना छोड दिया? वो तो पोरबँदर के एक साधारण दीवान का बेटा था जो कहने के पहले खुद उस पर अमल करता था! पँवार साहब तो बडे उद्योगपति हैँ! और भारत सरकार के इतने बडे मँत्री हैँ! उनहेँ भला चीनी छोडने की क्या ज़रूरत? बीते सालोँ मेँ जब मुझे गन्ने के दाम नहीँ मिल रहे थे...मैँ यूपी के चौराहोँ पर मेहनत से उपजाई गन्ने की फसल जला रहा था....तब भी तो चीनी मिलोँ के मालिक सरकार से मिलकर मिठाईयाँ खा रहे थे! उस वक्त भी सरकार मेरी आत्महत्याओँ से बेफिक्र थी! विदर्भ मेँ भी तो मैँ ही मर रहा था! उत्तर भारतीय और मराठी किसान दोनोँ के दुख-दर्द बाँटने वाला कोई नहीँ था! क्योँकि दोनोँ ही रूपोँ मेँ वो मैँ ही तो था आम आदमी! और आज भी जब महँगाई और बेरोज़गारी मुझे निगल रही है...मुझे बचाने वाला कोई नहीँ है! क्योँकि माई नेम इस कामन मेन! ए पूअर कामन मेन ओफ इँडिया! मेरे दर्द और भी हैँ क्या आपके पास सुनने का वक्त है?