Thursday 6 August 2009

कौन करेगा पहल?

19 अगस्त, 1946 को जन्मे बिल क्लिंटन आठ वर्ष अमेरिका के राष्ट्रपति रहकर वर्ष 2000 में पद से हटे। उन्होंने राजनीति से विदा ले ली और बिल क्लिंटन फाउंडेशन बनाया। इस प्रतिष्ठान के द्वारा वे सक्रिय हैं और जन सेवा की अनेक परियोजनाएं विश्व के अनेक देशों में उनके प्रयास से चल रही हैं। सभी गैर-राजनीतिक हैं। टोनी ब्लेयर 2 मई,1997 को 44 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने तथा 27 जून, 2007 को बिना तीसरा कार्यकाल पूरा किए पद से हट गए। सुगबुगाहट तो दूसरा कार्यकाल पूरा करने पर ही उनके हट जाने की थी और तभी तय हो गया था कि तीसरी बार सरकार बनाकर कुछ समय बाद वे हटेंगे।
वे योजनानुसार हटे तथा सक्रिय राजनीति से दूर हो गए। भारत में यदि वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री रहे होते और हार जाते तो कतई पीछे नहीं हटते- कोशिश करते रहते कि संसद में आगे की पंक्ति पर बैठने की जगह का जुगाड़ कैसे हो? टोनी ब्लेयर ने ‘टोनी ब्लेयर फेथ फाउंडेशन’ की स्थापना की। आज विश्व में विभिन्न धर्मो, पंथों तथा संप्रदायों में समरसता तथा सहजता स्थापित करना कितना आवश्यक है, इसे दुहराने की आवश्यकता नहीं है। ब्रिटेन के सामने भी यह समस्या लगातार बढ़ रही है। पूर्व प्रधानमंत्री ने इसे समझा तथा अब वह स्कूलों, कॉलेजों तथा महाविद्यालयों में सर्वधर्म समभाव तथा सर्वधर्म समादर के सिद्धांतों को स्थापित करने के प्रयास में जुट गए हैं।
इस प्रतिष्ठान से विश्व के अनेक देशों में संस्थाएं जुड़ी हैं। यदि वे इस प्रयास में सफलतापूर्वक जुड़े रहे तथा कार्य में जुटे रहे तो संभव है लोग इस योगदान को उनके प्रधानमंत्रित्व काल के योगदान को भूलकर याद रखें! जॉर्ज बुश से 2004 में संदेहपूर्ण परिस्थितियों में राष्ट्रपति पद का चुनाव हारे अल गोरे के साथ ऐसा ही हुआ। वे राजनीति से हटे तथा वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिग, ओजोन परत इत्यादि समस्याओं के समाधान में पूरी तरह समर्पित हो गए। आज कौन याद करता है कि वह अमेरिका के उपराष्ट्रपति रहे थे? सभी उनके गैर राजनीतिक कार्य की सराहना करते हैं और जानते हैं कि उन्हें बाद के काम के लिए नोबेल पुरस्कार मिल चुका है।
इसी प्रकार जिमी कार्टर जब दूसरी बार राष्ट्रपति का चुनाव हारे तो राजनीति से बाहर चले गए, मगर हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठे। आज वे विश्व में शांति स्थापित करने के प्रयासों में दौरे करते हैं, सुदूर अफ्रीका में हजारों लोगों को उनके प्रयासों के कारण रहने को घर मिल जाते हैं। जॉन केनेथ गालब्रेथ, हेनरी किसिंजर राजनीति से हटकर विश्वविद्यालयों में लौट गए और वहां सक्रिय हुए। भारत में मोहन धारिया का नाम उभरता है, जो राजनीति से हटे पर पर्यावरण संरक्षण में योगदान के लिए सराहे जाते हैं। वह अपवाद है।
भारत में ऐसा क्यों संभव नहीं होता है? यहां जो पद पर जितने अधिक दिन रह सकता है, उसी अनुपात में उसकी बढ़ती ‘महानता’ प्रतिपादित की जाती है। ऊंचे पदों पर रहे लोग जब किसी दूसरे क्षेत्र में कार्य करने की घोषणा करने पर, तब जो संदेश जाएगा, वह भारतीय जनमानस में तुरंत अपनी स्वीकार्यता बना सकता है। प्रधानमंत्री पद स्वीकार न कर सोनिया गांधी ने जो स्थान भारतीय लोगों के मानस पटल पर पाया है, वह पद पर बैठकर पाना संभव नहीं था।
विरोधी पक्ष कुछ भी कहें राहुल गांधी का राजनीतिक कद इस तथ्य से बढ़ा है कि उन्होंने मंत्री पद स्वीकार नहीं किया। इस सबके बावजूद जब लालू जी तथा रामविलास पासवान लोकसभा में किस कुर्सी पर बैठे, पहली लाइन में कैसे बैठें या राज्यसभा में कैसे पहुंचें जैसे प्रश्नों में उलझ कर रह जाते हैं, तब लगता है कि इनकी नजर अन्य क्षेत्रों पर क्यों नहीं जाती है। यह राजनीति से संन्यास लेकर बिहार में बाढ़ प्रबंधन या दलितों की शिक्षा में भागीदारी जैसे कार्य हाथ में लेकर क्यों नहीं आते? करुणानिधि अपने परिवार को पूरी तरह सत्ता में लाना चाहते हैं, परंतु अपने वृद्ध व्याधिग्रसित शरीर को आराम देने को तैयार नहीं हैं। अपने दल के व्यक्ति विशेष को विभाग विशेष जिदपूर्वक दिलाकर उन्होंने प्रधानमंत्री के विशेषधिकार पर चोट की, जिसे सामान्य जन स्वीकार नहीं करता है। इस प्रकार के कृत्य से जनतंत्र की जड़ें हिलने लगती हैं।
राजनेताओं के बाद आज तो हर तरफ कारपोरेट सेक्टर की ही चर्चा है। हर तरफ वैश्वीकरण के प्रभाव, परिणाम, दुष्प्रभाव दिखाई देते हैं। भारतीय उद्योगपति अमीरों की सूचियों में स्थान पा रहे हैं। मंदी के बावजूद भारतीय उद्योगपति जीवंत हैं तथा धनार्जन में पूरी तरह संलिप्त हैं। कुछ पब्लिक स्कूल या डीम्ड विश्वविद्यालय भी चला रहे हैं। वे अपने घर परिवार में विशेष अवसरों पर 44 मंजलीय भवन, नई एअर लाइन या याट ‘गिफ्ट’ में दे देते हैं। ऐसे अवसर पर जमशेद जी टाटा की याद आना अनिवार्य है।
उन्हें भारत की चिंता थी। पानी के जहाज पर अमेरिका से लौटते समय उनका तथा स्वामी विवेकानंद का संवाद आंखें खोलने वाला है। उसी के परिणामस्वरूप बैंगलौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सांइसेज की स्थापना हुई। बाद में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की स्थापना हो सकी। क्या आप हमारे नए धन कुबेरों में से ऐसा कोई नाम गिना सकेंगे? सभी को जानकर खुशी होगी।
समाज के निर्माण तथा लोगों के जीवन स्तर को सुधारने का प्रयास केवल राजनीति, पद प्राप्ति तथा सरकार द्वारा ही नहीं किए जा सकते हैं। जो राजनीति कर चुके हैं, मान-सम्मान प्राप्त कर चुके हैं, वे यदि आगे आकर एक फावड़ा चलाएं तो हजारों हाथ उठ खड़े हो जाएंगे, लोग उन्हें कंधे पर बिठा लेंगे और ईमानदारी से परिवर्तन के प्रयास प्रारंभ हो जाएंगे। सरकार भी सुधरेगी- लोग सशक्त होंगे।