Thursday, 25 September 2008

मेरी अधूरी कविता....


इक बस्ती उजियारी सी,
इक में अँधियारा क्यूँ रहता है?

माँ तू तो कहती......

हम सब एक इश्वर की है संताने,

फ़िर , इक सोता फुटपाथों पर,
इक महलों में क्यूँ रहता है?

इक बस्ती में रोज़ हैं मेले,

इक में सन्नाटा क्यूँ रहता है?

मेघा देता है पानी,

नया सृजन फ़िर करता है,

सूरज देता है रोशनी,

नहीं भेदभाव वो करता है,

फ़िर ऊंच-नीच में बटा ये मानव,

आपस में क्यों लड़ता है?

इक बस्ती उजियारी सी,

इक में अँधियारा क्यों रहता है?


ये कविता अधूरी है....लेकिन आप चाहे तो इसे पुरी कर सकते हैं ....तो लिख भेजिए मुझे, अपने नाम और एक फोटो के साथ yogesh_gulatius@yahoo.co.in पर और कर दीजिये इसे पुरा! प्रकाशित होगी ये आपके नाम और फोटो के साथ!


आतंकवाद के विरुद्ध


दबाव में ही सही केंद्र सरकार आतंकवाद से निपटने के अपने तौर-तरीकों पर फिर से विचार करने लगी है। संभवत: पहली बार प्रधानमंत्री ने यह स्वीकार किया है कि हमारे खुफिया तंत्र में कमजोरी है, जिसे जल्दी ही दूर करने की जरूरत है। वह मान रहे हैं कि मौजूदा कानूनों से काम नहीं चलने वाला है इसलिए सख्त कानून चाहिए। अब तक तो वह बेहद औपचारिक तरीके से रस्म अदायगी की तरह आश्वासन दिया करते थे, लेकिन दिल्ली धमाकों के बाद उन्होंने आतंकवाद के एक-एक पहलू को सामने रखते हुए उसकी चुनौतियों की चर्चा की है। उन्होंने आतंकवाद के लोकल फैक्टर पर गौर किया है और आतंकवादियों को स्थानीय लोगों से मिलने वाली मदद पर भी चिंता व्यक्त की है। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के वक्तव्य में भी सरकार की यह चिंता झलकती है। उन्होंने मेट्रो टेररिज्म के बढ़ते खतरों की ओर इशारा किया है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब सरकार आतंकवाद से निपटने के लिए नए कानून बनाने की मांग को सिरे से खारिज करती थी। वह अपनी रणनीति पर ठहरकर सोचने की जरूरत तक महसूस नहीं करती थी। जाहिर है सरकार का स्टैंड बदल रहा है। यह मंत्रियों की बदलती भाषा से भी स्पष्ट है। गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने भी सख्त कानून की बात कही है। लेकिन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने एक अलग पहलू की ओर ध्यान खींचा है जिस पर गौर करना होगा। उन्होंने कहा है कि समाज में अल्पसंख्यक अपने को अलग-थलग महसूस कर रहे हैं। यह अलगाव ही उन्हें आतंकवाद के रास्ते पर धकेल रहा है। इस संदर्भ में चिदम्बरम ने सवाल उठाया है कि आखिर क्यों डॉक्टरी और इंजीनियरिंग जैसी शिक्षा पाने वाले युवक आतंक के रास्ते पर बढ़ रहे हैं। इन सारी बातों को मिलाकर देखें तो आतंकवाद जैसी समस्या की गहराई को जानने-समझने और उसकी चुनौतियों से लड़ने की एक चाहत दिखती है, पर इसकी सार्थकता तभी है जब गंभीरता से संगठित रूप में प्रयास किए जाएं। ऐसा न हो कि समय बीतने के साथ सरकार इस मामले में सुस्त पड़ जाए। आमतौर पर यही होता आया है। आतंकवाद से निपटने के लिए प्रशासनिक तंत्र में सुधार की जरूरत तो है ही लेकिन जैसा कि चिदंबरम कह रहे हैं समाज में भी सकारात्मक माहौल बनाने की आवश्यकता है। सरकार जो करना चाहती है उस पर दृढ़ रहे और अपने सहयोगी दलों तथा विपक्ष को विश्वास में लेकर कार्य करे। विपक्ष को भी जिम्मेदारी का परिचय देना होगा। बीजेपी ने वीरप्पा मोइली के प्रस्ताव पर उंगली उठाई है और उसे अपर्याप्त बताया है। सरकार के हर निर्णय पर सवाल उठाने की बजाय कोई ऐसा सुसंगत रास्ता खोजा जाए जो सभी पक्षों को मंजूर हो। आतंकवाद को लेकर अब किसी भी स्तर पर ढीलेपन को जनता बर्दाश्त नहीं करेगी।

गरीबी का जाल


योगेश गुलाटी
सरकार भले ही यह दावा करे कि अपनी नीतियों में वह देश के पिछड़े क्षेत्रों और निर्धनों पर विशेष ध्यान देती है, लेकिन अभी तक उसकी योजनाओं का कोई ऐसा ठोस नतीजा देखने में नहीं आया है, जिसकी मिसाल देकर कहा जा सके कि उसने हमारे गांवों की सूरत बदल दी है। उलटे देश के किसी न किसी हिस्से से अक्सर ऐसी ही खबरें आती हैं, जो तमाम योजनाओं और दावों पर सवालिया निशान खड़े कर देती हैं। मध्य प्रदेश में पिछले चार महीने में 160 से भी ज्यादा बच्चों की कुपोषण के कारण मौत हो चुकी है। जनजातीय जिलों-सतना और खंडवा में हालात बेहद खराब हैं। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस भेजकर इस बारे में जानकारी मांगी है। लेकिन दूसरे राज्यों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। आमतौर पर सरकारी अमला भूख से मौत की बात को स्वीकार नहीं करता। वह मौत के लिए बीमारी को जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन सच तो यह है कि जन्म के बाद जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, वे बच्चों को मिल नहीं पाते, जिससे उनमें कई तरह की बीमारियां पनपती हैं। यानी मूल कारण सही भोजन की कमी ही है। आज भी देश का एक बड़ा हिस्सा पर्याप्त भोजन से वंचित है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े के मुताबिक देश के 20 करोड़ लोगों को ढंग का खाना मयस्सर नहीं है। पचास फीसदी से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, इनमें से 20 प्रतिशत की स्थिति गंभीर है। गांवों या आदिवासी इलाकों में महिलाओं को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। दुनिया में शायद ही इतनी महिलाएं प्रसव के दौरान जान गंवाती होंगी। भारत में हर साल करीब पांच लाख महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बुनियादी भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाते, इसलिए बच्चे बीमार हो जाते हैं। दूसरी तरफ बेहतर स्वास्थ्य सेवा न होने के कारण न तो बच्चों का ढंग से टीकाकरण हो पाता है, न ही उनकी बीमारियों का समुचित इलाज। यानी समस्या दो स्तरों पर है। एक तो खाद्यान्न संकट है और दूसरा है सक्षम सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र का अभाव। सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पीडीएस) जैसी व्यवस्था निर्धनों के लिए ही शुरू की गई थी पर आज इसमें भ्रष्टाचार का घुन लग गया है। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम तक स्वीकार कर रहे है कि पीडीएस को नए सिरे से व्यवस्थित करना जरूरी है। यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम की घोषणा भी बड़े जोर-शोर से शुरू की थी, लेकिन इसे भी ढंग से अमल में नहीं लाया जा सका है। मिड-डे मील की योजना भी कारगर ढंग से नहीं चल रही है। हर जगह यही रोना है कि ग्रामीण योजनाओं के लिए केंद्र से जारी राशि की स्थानीय स्तर पर बंदरबांट हो जाती है। ग्रामीण भारत का यथार्थ शायद उससे भी ज्यादा भयावह है, जितना हम सोचते या जानते हैं। गरीबों के लिए वादे करने और योजना बना देने भर से काम नहीं चलेगा, इस बात पर लगातार नजर रखनी होगी कि उनका लाभ सही जगह पहुंच रहा है या नहीं।