Friday 11 June 2010

मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद प्रवीण की एक कविता: दिल्ली से योगेश गुलाटी

प्रिय श्री योगेश जी,




मजदूर दिवस का उपहार स्वीकार करें...



हम,


कितने बेचारे हैं ?


लाचार,


थके-हारे...


युद्ध में पराजित सा योद्धा ।


चले थे,


दुनिया को दीया दिखाने,


मगर,


भूल गए थे...


कि, हम वहां खड़े हैं,


तलहटी में,


जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।


अंधेरे ने


ठूंठ बना दिया है,


हमें,


और, हमारी चेतना को...


जो कभी,


दुनिया को छांव देती थी,


पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।


फिर भी,




फिर भी,


नाउम्मीदों के बीच,


एक उम्मीद बना रखी है,


मानसून का...


झमाझम बारिश का...


दादुरों के शोर का...


कौवों के कांव-कांव का...


मगर,


निर्लज्ज जेठ,


हमारी जिंदगी से,


जाने का नाम ही नहीं लेता,


निगोड़ा बादल,


कभी झलक दिखलाता ही नहीं।


फिर,


कैसे कहूं...


शरद आएगा...


शिशिर आएगा...


और फिर,


आएगा बसंत...


हमारी जिंदगी का ...।



एक मई, यानी मजदूर दिवस पर, मीडिया के मजदूरों की मज़बूर-गाथा के दो शब्द