Sunday 13 June 2010

एंडरसन और हमारा मीडिया: दिल्ली से योगेश गुलाटी

देश के स्वतंत्रता आंदोलनों में राष्ट्र प्रेम और जन चेतना की नव ज्योति को जलाए रखने वाली पत्रकरिता आज़ादी के बाद दिशाहीन सी हो गई! आज़ादी के बाद हमारे सामने राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य था! इस लक्ष्य को पाने के लिये हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में सरकार काम कर रही थी! आज़ादी के बाद् करीब एक दशक तक तो सब कुछ ठीक चला लेकिन एक दशक के बाद ही राष्ट्र निर्माण का वो जोश जाता रहा! लोकतंत्र की आम कमियां जिनमें भ्रष्ट्राचार प्रमुख थी, सरकार की कार्यप्रणली पर सवालिया निशान लगाने लगी! ऎसे में जनता की सारी उम्मीदें मीडिया पर टिकी थीं! लेकिन मीडिया ने भी वो सक्रिय भूमिका नहीं निभाई जो स्वतंत्रता आंदोलनों के वक्त उसने निभाई थी! अंग्रेज़ हुकूमत की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जन चेतना का आगाज़ करने वाला हमारा मीडिया अपनी ही सरकार के शासन में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर ज़्यादा मुखर नहीं दिखा! शायद इसी का परिणाम था कि भ्रष्टाचार का वो घुन हमारी व्यवस्था में इस कदर घुसपैठ कर चुका है कि आज़ादी के साठ सालों के बाद उसने हमारी व्यवस्था को तकरीबन खोखला बना दिया है!

इन दिनों भोपाल गैंस कांड और एंडरसन की चर्चा ज़ोरों पर है! मीडिया में ये मुद्दा इन दिनों छाया हुआ है! मानवता को झकझोर देने वाली इस भीषण औद्योगिक त्रासदी के प्रमुख ज़िम्मेदार एंडरसन को लेकर तात्कालिक सरकार की भूमिका पर सवाल खडे किये जा रहे हैं! लेकिन ये हमारे लिये परेशानी की बात है! परेशानी इसलिये कि आज से पच्चीस बरस पहले अगर मीडिया ने सही भूमिका का निर्वाह किया होता तो शायद आज इस मामले पर दुनिया भर में भारत की जग हसाई ना हो रही होती! कितनी हैरानी की बात है कि 25 साल पहले जो सवाल सरकार से पूछने चाहिये थे वो सवाल 25 बरस के बाद पूछे जा रहे हैं! मीडिया में मुद्दों का पोस्टमार्टम करने की प्रवृत्ति दिनों दिन बढती जा रही है! ये स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत नहीं है!

हमारे सिस्टम को भ्रष्टाचार का घुन किस कदर खोखला कर चुका है इसकी एक बानगी झारखंड में कोडा सरकार के काले कारनामों और नरेगा जैसी लोक कल्याणकरी योजनाओं में व्यापक धांधलियों से हो जाती है! आटे में नमक के बराबर भ्रष्टाचार पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के वक्त जब बर्दाश्त के बाहर हो गया तो उन्हें भी ये स्वीकारना पडा कि केन्द्र से चला एक रुपया आम आदमी तक दस पैसे के रुप में ही पहुंच पाता है! लेकिन आज आसमान पर चढ बैठी महंगाई ने आम आदमी के खाने का ज़ायका ही बिगाड दिया है! आटे में भरष्टाचार का ये नमक अब आम आदमी की हड्डियां गला रहा है! उसे समझ नहीं आ रहा कि वो करे तो क्या? क्योंकि उसकी अपनी सरकार को उसकी कोई चिंता नहीं है ! और कानून उसे ज़िंदा रहते न्याय नहीं देता! अदलतों के चक्कर लगा कर उसकी उम्र बीत जाती है! उसके हाथ कुछ आये ना आये इस दौरान उसका सब कुछ लुटना तय होता है! एसे में उसके पास एक ही उम्मीद बचती है और वो है मीडिया! लेकिन हमारा मीडिया जिस तरह पच्चीस बरस बाद जागता है और ज़मीनी मुद्दों के जगह बिकाऊ मुद्दों की तलाश में रहता है उसे देख कर आम आदमी अब किसी भी ज़्यादती पर न्याय मिलने की उम्मीद छोड चुका है! शायद उसने ये मान लिया है कि अन्याय को सहना ही उसकी नियति है!

लेकिन इस दुर्दशा के लिये मीडिया को दोष देना भी सही नहीं है! नज़दीक जाने पर ही मीडिया की सही तस्वीर उभर कर सामने आती है! मीडिया और इसकी कार्यप्रणाली को करीब से जानने और समझने वाले इस बात को बखूबी जानते हैं कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को कभी भी मजबूत बनाने की कोशिश नहीं की गई! अमेरिका और यूरोप के मीडिया और हिंदुस्तान के मीडिया में ज़मीन आसमान का अंतर है! वहां मीडिया नियमों से संचालित होता है! और सही अर्थों में प्रेस की स्वतंत्रता वहां कायम की गई है! कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वहां का मीडिया पूरी तरह अनुशासन में रह कर काम करता है! इसलिये जनता की असली आवाज़ उभर कर सामने आती है! वहां जिन मुद्दों पर मीडिया में बहस होती है वो बाद में कानून बनाने में सरकार के मददगार बनते हैं! वहां मेडिया की स्वतंत्रता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां नेताओं की व्यक्तिगत ज़िंदगी पर भी मीडिया की पैनी नज़र होती है! अमेरिका और ब्रिटेन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की ज़िंदगी एक खुली किताब की तरह होती है! और उसमें मीडिया बेरोकटोक तांका-झांकी करता है! लेडी डयना, बिल क्लिंटन और फ्रांस के राष्ट्रपति स्रकोज़ी जैसी हस्तीयों के चटपटे किस्से इसकी पैरवी करते हैं! लेकिन हमारे देश में कितने नेताओं की निजी ज़िंदगी के बारे में हम जानते हैं! सोनिया गांधी पर आधारित ना होने के बावजूद प्रकाश झा की हालिया फिल्म राजनीति का विरोध होता है! रेड सारो जैसी किताब और इंडियन समर जैसी फिल्मों को रोकने के प्रयास भी यही दर्शाते हैं कि मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों की निजी ज़िंदगी में झांकने की अनुमति भारत में नहीं है! यहां सवाल ये भी है कि अंग्रेज़ सरकार की ज़्यादतियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाला मीडिया आज़ादी के बाद अपनी ही सरकार की कमज़ोरियों को उस बुलंदी के साथ सामने लाने और जनता की परेशानियों को सरकार तक पहंचाने का काम करने में काफी हद तक नाकाम क्यों रहा? भोपाल गैंस कांड के 25 बरसों के बाद सुर्खियों में आने से यही जाहिर होता है कि यदि अदालत का निर्णय नहीं आता तो सरकार की संदिग्ध भूमिका पर मीडिया सवाल भी ना उठाता!

लेकिन यहां बात उस मजदूर तबके की भी करनी होगी जो मीडिया में काम करता है जिसे मीडियकर्मी या पत्रकार के नाम से जाना जाता है! पत्रकारों की दुर्दशा पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है! ऎसे में पत्रकार बिकाऊ मजदूर बनने को मजबूर हो गया है! कलम पर अगर भूख हावी हो जाये तो ये लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत नहीं है! लेकिन विडंबना यही है कि आज पत्रकारिता की ये सच्चाई बन चुका है! खबर अब बिकाऊ माल बन चुकी है! मार्केटिंग के नये-नये फंडे इजाद किये जा रहे हैं! मीडिया मेनेजमेंट को कभी गलत समझा जाता था, लेकिन आज इसे कानूनी रुप से पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है! मीडिया मेनेजमेंट का कोर्स कर निकले एमबीए के छात्र लाखों की नौकरी करते हुए कारपोरेट हितों के लिये मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं! ऎसे में असली पत्रकारिता हाशिये पर चली गई है! मेरे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद प्रवीण की कविता मेँ यही दर्द कुछ इस तरह उभर कर सामने आया है!

हम,

कितने बेचारे हैं ?

लाचार,

थके-हारे...

युद्ध में पराजित सा योद्धा ।

चले थे,

दुनिया को दीया दिखाने,

मगर,
भूल गए थे...
कि, हम वहां खड़े हैं,
तलहटी में,

जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।
अंधेरे ने


ठूंठ बना दिया है,
हमें,
और, हमारी चेतना को...
जो कभी,
दुनिया को छांव देती थी,
पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।


फिर भी,
नाउम्मीदों के बीच,
एक उम्मीद बना रखी है,
मानसून का...
झमाझम बारिश का...
दादुरों के शोर का...
कौवों के कांव-कांव का...

मगर,

निर्लज्ज जेठ,
हमारी जिंदगी से,
जाने का नाम ही नहीं लेता,
निगोड़ा बादल,
कभी झलक दिखलाता ही नहीं।
फिर,
कैसे कहूं...
शरद आएगा...
शिशिर आएगा...
और फिर,
आएगा बसंत...
हमारी जिंदगी का ...।