Monday 18 May 2009

लेफ्ट नही राइट चलो!


योगेश गुलाटी ........

वामपंथ की ऐतिहासिक भूलों का सिलसिला थम नहीं रहा है। 1996 की बात है, प्रकाश करात के नेतृत्व में सीपीएम का पोलित ब्यूरो ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री न बनने देने को लेकर अड़ गया था। बाद में ज्योति बाबू ने इसे अपनी पार्टी की ऐतिहासिक भूल कहा था, हालांकि उस कथित वैचारिक संघर्ष से ही पाटीर् के शीर्ष पर पहुंचे करात आज भी इसे कोई भूल नहीं मानते। लेकिन 2009 के आम चुनाव में सीपीएम के सांसदों की तादाद जब 43 से घट कर 16 पर और पूरे वाम मोर्चे की 62 से घट कर 24 पर आ गई, तब भी वाम नेता इसे अपनी किसी वैचारिक गलती का नतीजा नहीं मानते तो इसका क्या अर्थ लगाया जाए? वाम नेता अगर ईमानदारी से सोचें तो उनकी पराजय में राज्य स्तरीय कारणों की भूमिका तो है ही, लेकिन उन्हें अगर भविष्य के लिए खुद को तैयार करना है तो पिछले पांच सालों की अपनी केंद्रीय राजनीति की चीरफाड़ पूरी निर्ममता से करनी होगी। यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देते हुए जो मुद्दे उन्होंने उठाए, उनमें ज्यादातर राष्ट्रहित में थे। इसके बावजूद देश में लगातार उनकी गैर-जिम्मेदार और विघ्न-संतोषी छवि क्यों बनती गई, इस बारे में उन्हें गंभीरता से विचार करना चाहिए। खासकर चुनाव से ठीक पहले यूपीए को हराने का एकमात्र लक्ष्य लेकर जिस तरह उन्होंने मायावती, देवगौड़ा और जयललिता जैसे छंटे-छंटाए अवसरवादियों से तालमेल किया, उसका वाम राजनीति से क्या संबंध हो सकता है? इन अप्रीतिकर सवालों को छोड़ कर वाम नेता अगर खुशफहमियां गढ़ने में ही जुटे रहते हैं तो फिर मार्क्स ही उनका भला करें!

पहली प्रतिक्रिया....

आज दो महीने की चुनावी कवायद का पटाक्षेप चौंकाने वाले परिणामों के साथ हुआ है..परिणामों.. इस लिए कि एक ओऱ जनता ने गठबंधन सरकार के समर्थन में लगभग स्पष्ट फैसला दिया है वहीं निरंकुश, स्वेक्षाचारी और अतिमहात्वांकाक्षी उदंड नेताओं को पूरे मन से सबक सीखा दिया है..आज के परिणाम भले ही किसी राष्ट्रीय मु्द्दे का समर्थन नहीं है लेकिन राजनीति की राष्ट्रीय दिशा जरूर तय कर सकते हैं.ये जनादेश विकल्पहीनता के बीच में विकल्प का भी संकते देते हैं...पूरे चुनावी गहमागहमी के बीच अपने मु्द्दों को तलाशती जनता ने राजनेताओं को अपनी अहमियत का अहसास करा दिया है..जूते - चप्पल की चर्चाओं और बुढ्ढी और गुड़िया के विशेषणों के इर्द गिर्द घुमती रही चुनावी बहस ने दो महीने तक जनता को खूब बोर किया, मीडिया में प्लांटेड राय प्रसारित कर राजनीतिक दल और नेता जनता को गुमराह करने की कोशिश करते रहे लेकिन चुनाव परिणाम ने इन सभी की खुशफहमी को चंद घंटों में ही काफूर कर दिया.. इलेक्ट्रानिक मीडिया ने घंटों कपोलकल्पित सरकारें बनाई और कई ख्याली प्रधानमंत्री देश को लाखों के विज्ञापनों के बीच परोसा.आज के परिणाम ने साफ कर दिया कि देश की जनता बाजारू चकाचौंध के बीच सादगी पसंद है..वो उदंड, आक्रमक और हाईटेक नेताओं को ज्यादा सहन नहीं कर सकती..लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, लक्ष्मण सिंह ,वाइको,मायावती, जयललीता जैसे नेताओं का हाल ये बताने को काफी है कि अकड़ और अख्खड़ रवैया जनता झेलने को अभिशप्त नहीं है. आंकड़ों की बाजीगरी कर जनता का समय जाया करने वाली मीडिया का वो भ्रम भी इस जनादेश ने एक बार फिर तोड़ दिया है कि सवा अरब की आबादी के तेवर को कमरे में बैठकर भांपा जा सकता है.बहरहाल यहाँ युवा मतदातों की यु्वा सोच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है और यूँ कहे युवा मानसिकता को जनता ने हाथों हाथ लिया है..जनता ने कथित बूढ़ी पार्टी के युवा नेतृत्व को तमाम आशंकाओं के बावजूद स्वीकार किया वहीं पच्चीस साल की युवा पार्टी को समय से पहले बूढ़ा बना दिया. नतीजों में कोई धुंधलाहट रह नहीं गई है और बिना किसी विशेष मेहनत के अब विद्वान अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह फिर देश के सरदार बनेंगे..वैसे लोकसभा चुनाव परिणाम के ताजा आँकड़ों ने ये भी सिद्ध कर दिया है विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़े ही नहीं जाते हैं बल्कि जनता का विश्वास भी जीता जा सकता है. बहरहाल सत्ता के गलियारों की सरगर्मी मद्धम होने लगी है ऐसे में उम्मीद की जा सकती है अब दिल्ली का चुनावी तापमान बड़ी तेजी से नीचे उतरेगा..आने वाले दिनों में अनिश्चितता की तपीश खत्म होगी..और विकास की बौछार से देश की जनता को राहत मिल सकेगी..
विकास शर्मा रायपुर 09329444278