Saturday 8 May 2010

ANY REMEDY FOR JUDICIAL TORTURE?: दिल्ली से योगेश गुलाटी

जी हां मैं न्यायिक उपचारों की ही बात कर रहा हूँ! हमारे संविधान में प्रदत्त क़ानून के समक्ष समानता आज़ादी के दशकों बाद भी सच्चाई नहीं बन पाई है! आलम ये है कि न्याय पाने की पूरी प्रक्रिया इतनी कष्टप्रद है कि उससे कहीं बेहतर सज़ा भुगतना लगता है! यहां पीड़ित दो तरफा सज़ा भुगता है! पहला तो वो अन्याय को भोगता है! और दूसरा उस पीड़ा से शायद अधिक पीडादायक कानूनी प्रक्रिया के चक्रव्यू में ऐसा फंसता है कि उसकी ज़िंदगी कब इस उलझन में ही बीत जाती है उसे खुद पता नहीं चलता! न्याय की आस में वो बूढा हो जाता है! और मरने से पहले उसे न्याय मिल भी जाए तो ये उसके ज़ख्मो पर नमक का ही काम करता है! इसके ठीक उलट अपराधी हमारी अदालातोम की इस कमजोरी का बखूबी फ़ायदा उठा रहे हैं! वो आसानी से जमानत पर छूट जाते हैं! ह्त्या के मामलों में भी कमजोर जांच और सबूतों का अभाव उन्हें बरी कर देता है! हम इस सिध्दाम्त पर यकीन रखते हैं कि चाहे सौ अपराधी छूट जायें लेकिन एक निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए! निर्दोष तो न्याय की गुहार और न्यायिक प्रक्रिया के दौरान ही पर्याप्त सज़ा भुगत चुका होता है! क्योंकि अपराध को साबित करने का भार भी उसी के कंधों पर होता है, जिसके साथ अन्याय हुआ है! ऐसे में हमारी जांच एजेंसिया और पुलिस कितनी मददगार साबित होती हैं ये किसी से छुपा नहीं है! जांच में घोर लापरवाही और सबूतों को नष्ट हो जाने देना हमारे यहां जांच एजेसियों के लिए नई बात नहीं है! ऐसे में अदालत में आरोपों को साबित करना लोहे के चने चबाने जैसा है! कहते हैं "डिले डिनाय दी जस्टिस" ! क़ानून की किताब का ये पहला सबक हमारे यहां लागू नहीं होता! और हो भी नहीं सकता! क्योंकि हमारी अदालतों में केसों के अम्बार लगे हैं! हमारे २१ उच्च न्यायालयों में तीन करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग है! और अधीनस्थ न्यायालयों में करीब दो करोड़ से ज्यादा केस विचाराधीन है! देश की विभिन्न जेलों में करीब ढाई लाख लोग अंदर ट्रायल है! और दो हज़ार से ज़्यादा लोग पांच सालो से जेल में बंद है जबकि उनका अपराध साबित नहीं हुआ है! पेंडिंग केसों के मामले में यूपी नंबर एक पर है! अकेले इलाहबाद हाईकोर्ट में एक करोड़ से भी ज्यादा पेंडिंग केस हैं! जबकि सिक्किम महज़ ५१ विचाराधीन मामलों के साथ इस लिस्ट में सबसे नीचे है! यूपी के बाद नंबर आता है महाराष्ट्रा(४१ लाख), गुजरात (३९ लाख), पश्चिम बंगाल(20 लाख), बिहार(१२ लाख), कर्नाटका( १० लाख), राजस्थान( १० लाख), ओडिशा (१० लाख), आंध्र प्रदेश (९ लाख)!
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सी मामले पर अपनी चिंता जाहिर की है! इसके पहले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन भी कई बार इस मुद्दे पर चिंता जता चुके हैं! लेकिन यहां सवाल ये है कि क्या सिर्फ चिंता जाहिर करना ही पर्याप्त है? सवाल ये भी है कि संविधान की आत्मा यानी क़ानून के समक्ष समानता को लागू करने के लिए क्या कदम उठाये जा रहे हैं? हम अभी तक लोकतंत्र के पहले लक्ष्य को भी नहीं पा सके है! क्योकि हमारी अदालते विचाराधीन मामलों से भरी है! न्याय महँगा ही नहीं आम आदमी की पहुच से बाहर की बात है! और पूरी न्यायिक प्रक्रिया कितनी कष्टप्रद है इसका अंदाज़ तो कोई भुक्तभोगी ही बाया कर सकता है! हमारे देश में १० लाख लोगो पर औसतन १४ जज है! और १५०० लोगो पर एक एडवोकेट! हमारे विश्विद्यालयो में क़ानून की शिक्षा का क्या आलम है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हमारे वकील कानूनी धाराओं से नहीं जुगाड़ से केस जीतने की कोशिश करते है! और ज्यादातर केस इस लिए नहीं सुलझ पाते क्योकि वकील नहीं चाहते कि उनका फैसला हो! सवाल ये भी है कि जब प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्याधीश इस मुद्दे पर गंभीर है तो फिर क्यों नहीं हो रहा कायाकल्प हमारी न्याय व्यवस्था का? विकसित देशों की न्याय व्यवस्था का माडल अपना कर हम इस दोष को दूर कर सकते है!
दिल्ली से योगेश गुलाटी की रिपोर्ट!