योगेश गुलाटी
सरकार भले ही यह दावा करे कि अपनी नीतियों में वह देश के पिछड़े क्षेत्रों और निर्धनों पर विशेष ध्यान देती है, लेकिन अभी तक उसकी योजनाओं का कोई ऐसा ठोस नतीजा देखने में नहीं आया है, जिसकी मिसाल देकर कहा जा सके कि उसने हमारे गांवों की सूरत बदल दी है। उलटे देश के किसी न किसी हिस्से से अक्सर ऐसी ही खबरें आती हैं, जो तमाम योजनाओं और दावों पर सवालिया निशान खड़े कर देती हैं। मध्य प्रदेश में पिछले चार महीने में 160 से भी ज्यादा बच्चों की कुपोषण के कारण मौत हो चुकी है। जनजातीय जिलों-सतना और खंडवा में हालात बेहद खराब हैं। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस भेजकर इस बारे में जानकारी मांगी है। लेकिन दूसरे राज्यों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। आमतौर पर सरकारी अमला भूख से मौत की बात को स्वीकार नहीं करता। वह मौत के लिए बीमारी को जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन सच तो यह है कि जन्म के बाद जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, वे बच्चों को मिल नहीं पाते, जिससे उनमें कई तरह की बीमारियां पनपती हैं। यानी मूल कारण सही भोजन की कमी ही है। आज भी देश का एक बड़ा हिस्सा पर्याप्त भोजन से वंचित है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े के मुताबिक देश के 20 करोड़ लोगों को ढंग का खाना मयस्सर नहीं है। पचास फीसदी से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, इनमें से 20 प्रतिशत की स्थिति गंभीर है। गांवों या आदिवासी इलाकों में महिलाओं को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। दुनिया में शायद ही इतनी महिलाएं प्रसव के दौरान जान गंवाती होंगी। भारत में हर साल करीब पांच लाख महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बुनियादी भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाते, इसलिए बच्चे बीमार हो जाते हैं। दूसरी तरफ बेहतर स्वास्थ्य सेवा न होने के कारण न तो बच्चों का ढंग से टीकाकरण हो पाता है, न ही उनकी बीमारियों का समुचित इलाज। यानी समस्या दो स्तरों पर है। एक तो खाद्यान्न संकट है और दूसरा है सक्षम सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र का अभाव। सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पीडीएस) जैसी व्यवस्था निर्धनों के लिए ही शुरू की गई थी पर आज इसमें भ्रष्टाचार का घुन लग गया है। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम तक स्वीकार कर रहे है कि पीडीएस को नए सिरे से व्यवस्थित करना जरूरी है। यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम की घोषणा भी बड़े जोर-शोर से शुरू की थी, लेकिन इसे भी ढंग से अमल में नहीं लाया जा सका है। मिड-डे मील की योजना भी कारगर ढंग से नहीं चल रही है। हर जगह यही रोना है कि ग्रामीण योजनाओं के लिए केंद्र से जारी राशि की स्थानीय स्तर पर बंदरबांट हो जाती है। ग्रामीण भारत का यथार्थ शायद उससे भी ज्यादा भयावह है, जितना हम सोचते या जानते हैं। गरीबों के लिए वादे करने और योजना बना देने भर से काम नहीं चलेगा, इस बात पर लगातार नजर रखनी होगी कि उनका लाभ सही जगह पहुंच रहा है या नहीं।
सरकार भले ही यह दावा करे कि अपनी नीतियों में वह देश के पिछड़े क्षेत्रों और निर्धनों पर विशेष ध्यान देती है, लेकिन अभी तक उसकी योजनाओं का कोई ऐसा ठोस नतीजा देखने में नहीं आया है, जिसकी मिसाल देकर कहा जा सके कि उसने हमारे गांवों की सूरत बदल दी है। उलटे देश के किसी न किसी हिस्से से अक्सर ऐसी ही खबरें आती हैं, जो तमाम योजनाओं और दावों पर सवालिया निशान खड़े कर देती हैं। मध्य प्रदेश में पिछले चार महीने में 160 से भी ज्यादा बच्चों की कुपोषण के कारण मौत हो चुकी है। जनजातीय जिलों-सतना और खंडवा में हालात बेहद खराब हैं। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस भेजकर इस बारे में जानकारी मांगी है। लेकिन दूसरे राज्यों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। आमतौर पर सरकारी अमला भूख से मौत की बात को स्वीकार नहीं करता। वह मौत के लिए बीमारी को जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन सच तो यह है कि जन्म के बाद जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, वे बच्चों को मिल नहीं पाते, जिससे उनमें कई तरह की बीमारियां पनपती हैं। यानी मूल कारण सही भोजन की कमी ही है। आज भी देश का एक बड़ा हिस्सा पर्याप्त भोजन से वंचित है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े के मुताबिक देश के 20 करोड़ लोगों को ढंग का खाना मयस्सर नहीं है। पचास फीसदी से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, इनमें से 20 प्रतिशत की स्थिति गंभीर है। गांवों या आदिवासी इलाकों में महिलाओं को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। दुनिया में शायद ही इतनी महिलाएं प्रसव के दौरान जान गंवाती होंगी। भारत में हर साल करीब पांच लाख महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बुनियादी भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाते, इसलिए बच्चे बीमार हो जाते हैं। दूसरी तरफ बेहतर स्वास्थ्य सेवा न होने के कारण न तो बच्चों का ढंग से टीकाकरण हो पाता है, न ही उनकी बीमारियों का समुचित इलाज। यानी समस्या दो स्तरों पर है। एक तो खाद्यान्न संकट है और दूसरा है सक्षम सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र का अभाव। सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पीडीएस) जैसी व्यवस्था निर्धनों के लिए ही शुरू की गई थी पर आज इसमें भ्रष्टाचार का घुन लग गया है। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम तक स्वीकार कर रहे है कि पीडीएस को नए सिरे से व्यवस्थित करना जरूरी है। यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम की घोषणा भी बड़े जोर-शोर से शुरू की थी, लेकिन इसे भी ढंग से अमल में नहीं लाया जा सका है। मिड-डे मील की योजना भी कारगर ढंग से नहीं चल रही है। हर जगह यही रोना है कि ग्रामीण योजनाओं के लिए केंद्र से जारी राशि की स्थानीय स्तर पर बंदरबांट हो जाती है। ग्रामीण भारत का यथार्थ शायद उससे भी ज्यादा भयावह है, जितना हम सोचते या जानते हैं। गरीबों के लिए वादे करने और योजना बना देने भर से काम नहीं चलेगा, इस बात पर लगातार नजर रखनी होगी कि उनका लाभ सही जगह पहुंच रहा है या नहीं।
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