योगेश गुलाटी
' स्थिति तनावपूर्ण लेकिन सामान्य है' यह वाक्य सरकारी बयानों में अक्सर दिखाई दे जाता है और जब भी कहीं यह वाक्य दिखता है, शब्द 'सामान्य' के अर्थ के बारे में मन में शंका उठने लगती है। जब तनावपूर्ण स्थिति सामान्य बताई जाए, तो इसका केवल एक ही अर्थ हो सकता है कि तनावपूर्ण स्थिति को हमने सामान्य मान लिया है। यानी स्वीकार कर लिया है इस स्थिति को। यह बात आम तौर पर कानून-व्यवस्था के संदर्भ में कही जाती है लेकिन असामान्य को सामान्य मान लेने का किस्सा काफी गहरे और काफी दूर तक फैला हुआ है। यह कहावत भी कि 'दर्द का हद से गुजर जाना दवा हो जाता है' इसी संदर्भ में समझी-समझाई जा सकती है। गलत स्थितियों को इस तरह स्वीकारते जाना कोई अच्छी स्थिति नहीं है- वस्तुत: यह हमारी विफलता का ही उदाहरण है। आज महंगाई को विश्वव्यापी समस्या बताकर हमें समझाया जा रहा है कि जरूरी वस्तुओं के आकाश छूते भावों से घबराने की आवश्यकता नहीं है, जब दुनिया में भाव कम होंगे, हमारे यहां भी हो जाएंगे। इसी तरह कभी भ्रष्टाचार के बारे में कहा गया था। जब देश में भ्रष्टाचार हर तरफ सिर उठाने लगा था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे विश्वव्यापी समस्या बताकर एक तरह से स्वीकार्य स्थिति के रूप में समझाने की कोशिश की थी। ऐसा ही कुछ अब किया जा रहा है। हाल ही में भ्रष्टाचार के बारे में एक रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल और सेंटर फॉर मैनेजमंेट स्ट्डीज द्वारा तैयार की गई है। समाचारों के अनुसार रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और असम सहित देश के सात राज्यों में भ्रष्टाचार का स्तर खतरनाक है। इस श्रेणी में आने वाले अन्य राज्य हैं- जम्मू-कश्मीर, गोवा और नगालैंड। रिपोर्ट में कहा गया है कि कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु, मेघालय और सिक्किम में भ्रष्टाचार का स्तर बहुत ऊंचा है। इसके बाद छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, केरल, उड़ीसा, अरुणाचल और मणिपुर का नाम लिया गया है। इस राज्यों में भ्रष्टाचार का स्तर ऊंचा बताया गया है। खतरनाक स्तर से लेकर ऊंचे स्तर तक की यह कहानी भ्रष्टाचार की जड़ों की गहराई का संकेत दे रही है और इस बात का भी कि रोग कितना फैल गया है। लेकिन इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट का अगला हिस्सा कहीं ज्यादा चौंकाने वाला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आंध्र प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, चंडीगढ़, मिजोरम, पांडिचेरी और त्रिपुरा में भ्रष्टाचार सामान्य है। भ्रष्टाचार सामान्य होने का क्या मतलब है? मतलब यह है कि इन राज्यों में भ्रष्टाचार का स्तर उतना ही है जितना आम तौर पर होता है। यानी यह मान लिया गया है कि भ्रष्टाचार है, लेकिन इतना तो चलता है। कानून और व्यवस्था के संदर्भ में स्थिति को तनावपूर्ण, लेकिन सामान्य कहने के पीछे जो मानसिकता होती है, वही भ्रष्टाचार की स्थिति को सामान्य घोषित करने के पीछे भी है। जैसे किसी तनावपूर्ण स्थिति को सामान्य मानना-कहना गलत है, वैसे ही समाज में फैले भ्रष्टाचार को सामान्य मान लेना भी सही नहीं है। भ्रष्टाचार का खतरनाक स्तर जितना खतरनाक हो सकता है, उससे कहीं अधिक खतरनाक स्थिति भ्रष्टाचार के स्तर को सामान्य मान लेने की है। यह स्वीकारोक्ति समाज और व्यवस्था की सकारात्मक प्रवृत्तियों की पराजय का ही संकेत नहीं है, वरन यह भी बताती है कि स्थितियों को समझने और उनके मूल्यांकन के हमारे पैमाने सही नहीं हैं। ऐसा लगता है कि हमने भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेक दिए हैं। कुछ अर्सा पहले सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड चीफ जस्टिस ने यह कहा था कि हमारी न्यायपालिका में लगभग 20 फीसदी जज भ्रष्ट हैं। यह सुनकर देश चौंका था- इसलिए नहीं कि न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है, बल्कि इसलिए कि एक जस्टिस ऐसी बात कह रहा है। यहां स्वीकारना होगा कि आज भी कुल मिलाकर जनता का विश्वास अभी न्यायपालिका से टूटा नहीं है। विधायिका और कार्यपालिका की तुलना में न्यायपालिका में जनता का विश्वास निश्चित रूप से अधिक है, लेकिन 20 फीसदी वाली स्वीकारोक्ति के बाद भी इस विश्वास का बने रहना यही बताता है कि कम से कम उस स्तर तक भ्रष्टाचार को हमने स्वीकार कर लिया है। आप कह सकते हैं कि इस स्थिति को हमने सामान्य मान लिया है। जैसे ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल वाली रिपोर्ट देश के ग्यारह राज्यों में भ्रष्टाचार की स्थिति को सामान्य कह रही है। सामान्य के प्रति यह भ्रामक दृष्टिकोण और उसकी स्वीकार्यता हमारे सोच और व्यवस्था दोनों पर एक गंभीर सवाल है। जैसे तनावपूर्ण स्थिति सामान्य नहीं होती, वैसे ही भ्रष्टाचार का कोई भी स्तर सामान्य नहीं हो सकता। ऐसा होना भी गलत है, ऐसा मानना भी। भ्रष्टाचार एक कैंसर है और अब यह कैंसर सारे शरीर में फैल रहा है। जैसे कैंसर को पराजित करने के लिए दवाओं के साथ-साथ मनोबल की जरूरत होती है, वैसे ही भ्रष्टाचार की इस बीमारी से लड़ने के लिए पहले यह अहसास जरूरी है कि भले ही भ्रष्टाचार विश्वव्यापी हो, और भले ही यह लगने लगा हो कि इसे एक जीवन पद्धति की तरह स्वीकारा जा रहा हैं, लेकिन भ्रष्टाचार जीवन की सामान्य स्थिति नहीं है। इसके किसी भी स्तर को सामान्य कहकर हम एक अपराध को ही स्वीकृति देते हैं। हालांकि कहा जाता है अपराध से घृणा करनी चाहिए अपराधी से नहीं, लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में तो अब यह जरूरी लगने लगा है कि भ्रष्टाचारी की पहचान ही नहीं की जाए, बल्कि घोषित भी किया जाए कि वह समाज और व्यवस्था पर कलंक है। हमारी विडम्बना यह है कि हम भ्रष्टाचार को अपराध तो मानते हैं, लेकिन इसके अपराधी को सामान्य स्थिति का लेबल लगाकर छोड़ देते हैं। इसीलिए यह अपराध भी पल रहा है और अपराधी भी। पहली बात तो यह कि बहुत कम भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई हो पाती है और जिनके खिलाफ होती है उन्हें भी सामाजिक अस्वीकृति का डर नहीं रहता। अफसर भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है तो उसे कभी-कभी नौकरी से भी निकाल देते हैं, लेकिन समाज में निंदित नहीं होता वह। भ्रष्टाचारी नेता तो हमेशा यह कहकर बच निकलते हैं कि उनके विरोधी उन्हें बदनाम कर रहे हैं। रंगे हाथों पकडे़ गए नेता भी नेता बने रहते हैं। यह शर्मनाक है। इसे सिर्फ सामान्य नहीं कहा जाना चाहिए, तभी हम इस स्थिति को बदलने के बारे में सोच सकेंगे।
' स्थिति तनावपूर्ण लेकिन सामान्य है' यह वाक्य सरकारी बयानों में अक्सर दिखाई दे जाता है और जब भी कहीं यह वाक्य दिखता है, शब्द 'सामान्य' के अर्थ के बारे में मन में शंका उठने लगती है। जब तनावपूर्ण स्थिति सामान्य बताई जाए, तो इसका केवल एक ही अर्थ हो सकता है कि तनावपूर्ण स्थिति को हमने सामान्य मान लिया है। यानी स्वीकार कर लिया है इस स्थिति को। यह बात आम तौर पर कानून-व्यवस्था के संदर्भ में कही जाती है लेकिन असामान्य को सामान्य मान लेने का किस्सा काफी गहरे और काफी दूर तक फैला हुआ है। यह कहावत भी कि 'दर्द का हद से गुजर जाना दवा हो जाता है' इसी संदर्भ में समझी-समझाई जा सकती है। गलत स्थितियों को इस तरह स्वीकारते जाना कोई अच्छी स्थिति नहीं है- वस्तुत: यह हमारी विफलता का ही उदाहरण है। आज महंगाई को विश्वव्यापी समस्या बताकर हमें समझाया जा रहा है कि जरूरी वस्तुओं के आकाश छूते भावों से घबराने की आवश्यकता नहीं है, जब दुनिया में भाव कम होंगे, हमारे यहां भी हो जाएंगे। इसी तरह कभी भ्रष्टाचार के बारे में कहा गया था। जब देश में भ्रष्टाचार हर तरफ सिर उठाने लगा था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे विश्वव्यापी समस्या बताकर एक तरह से स्वीकार्य स्थिति के रूप में समझाने की कोशिश की थी। ऐसा ही कुछ अब किया जा रहा है। हाल ही में भ्रष्टाचार के बारे में एक रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल और सेंटर फॉर मैनेजमंेट स्ट्डीज द्वारा तैयार की गई है। समाचारों के अनुसार रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और असम सहित देश के सात राज्यों में भ्रष्टाचार का स्तर खतरनाक है। इस श्रेणी में आने वाले अन्य राज्य हैं- जम्मू-कश्मीर, गोवा और नगालैंड। रिपोर्ट में कहा गया है कि कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु, मेघालय और सिक्किम में भ्रष्टाचार का स्तर बहुत ऊंचा है। इसके बाद छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, केरल, उड़ीसा, अरुणाचल और मणिपुर का नाम लिया गया है। इस राज्यों में भ्रष्टाचार का स्तर ऊंचा बताया गया है। खतरनाक स्तर से लेकर ऊंचे स्तर तक की यह कहानी भ्रष्टाचार की जड़ों की गहराई का संकेत दे रही है और इस बात का भी कि रोग कितना फैल गया है। लेकिन इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट का अगला हिस्सा कहीं ज्यादा चौंकाने वाला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आंध्र प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, चंडीगढ़, मिजोरम, पांडिचेरी और त्रिपुरा में भ्रष्टाचार सामान्य है। भ्रष्टाचार सामान्य होने का क्या मतलब है? मतलब यह है कि इन राज्यों में भ्रष्टाचार का स्तर उतना ही है जितना आम तौर पर होता है। यानी यह मान लिया गया है कि भ्रष्टाचार है, लेकिन इतना तो चलता है। कानून और व्यवस्था के संदर्भ में स्थिति को तनावपूर्ण, लेकिन सामान्य कहने के पीछे जो मानसिकता होती है, वही भ्रष्टाचार की स्थिति को सामान्य घोषित करने के पीछे भी है। जैसे किसी तनावपूर्ण स्थिति को सामान्य मानना-कहना गलत है, वैसे ही समाज में फैले भ्रष्टाचार को सामान्य मान लेना भी सही नहीं है। भ्रष्टाचार का खतरनाक स्तर जितना खतरनाक हो सकता है, उससे कहीं अधिक खतरनाक स्थिति भ्रष्टाचार के स्तर को सामान्य मान लेने की है। यह स्वीकारोक्ति समाज और व्यवस्था की सकारात्मक प्रवृत्तियों की पराजय का ही संकेत नहीं है, वरन यह भी बताती है कि स्थितियों को समझने और उनके मूल्यांकन के हमारे पैमाने सही नहीं हैं। ऐसा लगता है कि हमने भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेक दिए हैं। कुछ अर्सा पहले सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड चीफ जस्टिस ने यह कहा था कि हमारी न्यायपालिका में लगभग 20 फीसदी जज भ्रष्ट हैं। यह सुनकर देश चौंका था- इसलिए नहीं कि न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है, बल्कि इसलिए कि एक जस्टिस ऐसी बात कह रहा है। यहां स्वीकारना होगा कि आज भी कुल मिलाकर जनता का विश्वास अभी न्यायपालिका से टूटा नहीं है। विधायिका और कार्यपालिका की तुलना में न्यायपालिका में जनता का विश्वास निश्चित रूप से अधिक है, लेकिन 20 फीसदी वाली स्वीकारोक्ति के बाद भी इस विश्वास का बने रहना यही बताता है कि कम से कम उस स्तर तक भ्रष्टाचार को हमने स्वीकार कर लिया है। आप कह सकते हैं कि इस स्थिति को हमने सामान्य मान लिया है। जैसे ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल वाली रिपोर्ट देश के ग्यारह राज्यों में भ्रष्टाचार की स्थिति को सामान्य कह रही है। सामान्य के प्रति यह भ्रामक दृष्टिकोण और उसकी स्वीकार्यता हमारे सोच और व्यवस्था दोनों पर एक गंभीर सवाल है। जैसे तनावपूर्ण स्थिति सामान्य नहीं होती, वैसे ही भ्रष्टाचार का कोई भी स्तर सामान्य नहीं हो सकता। ऐसा होना भी गलत है, ऐसा मानना भी। भ्रष्टाचार एक कैंसर है और अब यह कैंसर सारे शरीर में फैल रहा है। जैसे कैंसर को पराजित करने के लिए दवाओं के साथ-साथ मनोबल की जरूरत होती है, वैसे ही भ्रष्टाचार की इस बीमारी से लड़ने के लिए पहले यह अहसास जरूरी है कि भले ही भ्रष्टाचार विश्वव्यापी हो, और भले ही यह लगने लगा हो कि इसे एक जीवन पद्धति की तरह स्वीकारा जा रहा हैं, लेकिन भ्रष्टाचार जीवन की सामान्य स्थिति नहीं है। इसके किसी भी स्तर को सामान्य कहकर हम एक अपराध को ही स्वीकृति देते हैं। हालांकि कहा जाता है अपराध से घृणा करनी चाहिए अपराधी से नहीं, लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में तो अब यह जरूरी लगने लगा है कि भ्रष्टाचारी की पहचान ही नहीं की जाए, बल्कि घोषित भी किया जाए कि वह समाज और व्यवस्था पर कलंक है। हमारी विडम्बना यह है कि हम भ्रष्टाचार को अपराध तो मानते हैं, लेकिन इसके अपराधी को सामान्य स्थिति का लेबल लगाकर छोड़ देते हैं। इसीलिए यह अपराध भी पल रहा है और अपराधी भी। पहली बात तो यह कि बहुत कम भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई हो पाती है और जिनके खिलाफ होती है उन्हें भी सामाजिक अस्वीकृति का डर नहीं रहता। अफसर भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है तो उसे कभी-कभी नौकरी से भी निकाल देते हैं, लेकिन समाज में निंदित नहीं होता वह। भ्रष्टाचारी नेता तो हमेशा यह कहकर बच निकलते हैं कि उनके विरोधी उन्हें बदनाम कर रहे हैं। रंगे हाथों पकडे़ गए नेता भी नेता बने रहते हैं। यह शर्मनाक है। इसे सिर्फ सामान्य नहीं कहा जाना चाहिए, तभी हम इस स्थिति को बदलने के बारे में सोच सकेंगे।
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