Thursday, 11 February 2010

माई नेम इज़ “कामन मेन”

कोई कहता है माई नेम इज़ खान...तो कोई कहता है माई नेम इज़ ठाकरे! तो सोचा आज मैँ भी बता ही दूँ कि माई नेम इज़ कामन मेन! शाहरुख की फिल्म की रिलीज़ के ठीक पहले ये बात बताना इसलिये भी मुझे ज़रूरी लगा कि ठाकरे और खान की इस महाभारत मेँ सरकार ने मुझे भुला दिया है! मेरी जान की कोई कीमत नहीँ है! मेरी ज़िँदगी और मौत बस एक आँकडा है! सरकारी आँकडा! मेरे साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है! गुँडे-बदमाश, अँडरवर्ल्ड और आतँकवादी सभी मेरी जान के पीछे पडे हैँ! लेकिन सरकार को मेरी कतई चिँता नहीँ है! उसे चिँता है तो इस बात की कि शाहरुख की फिल्म रीलीज़ हो जाये! और आईपीएल वक्त पर हो जाये! इसीलिये तो मेरी प्यारी सरकार ने मुँबइ को छावनी मेँ तब्दील कर दिया है! ऐसा उसने पहले कभी नहीँ किया! तब भी नहीँ जब मुँबई की लोकल ट्रेनोँ मेँ हुए आतँकी हमलोँ मेँ मैँ मारा जा रहा था! आजकल कोई मराठी मानुष की बात कर रहा है तो किसी को उत्तर भारतीयोँ की चिँता सता रही है! लेकिन मुझे भूल गये...... मुम्बई का डिब्बेवाला और बिहार का रिक्शे वाला..... वो मैँ ही तो हूँ! एक आम भारतीय! खान भी मैँ ही हूँ और ठाकरे भी तो मैँ ही हूँ! वैसे सरकार ने ये पहली बार नहीँ किया है! वो तो मुझे आज़ादी के बाद से ही भूलती आई है! मैँ एक आम आदमी हूँ जिसे “आम” समझ कर जिसने चाहा चूमा और जम कर चूसा! ये सिलसिला आज भी जारी है ! अब तो मुझमेँ गुठलियोँ के सिवाय कुछ बचा ही नहीँ है! लेकिन फिर भी सरकार की सारी कल्याणकारी योजनाओँ का केन्द्र मैँ ही हूँ! हाँ वो मैँ ही हूँ जिसके कल्याण लिये पास होती हैँ कईँ योजनाएँ और बटता है अरबोँ का फँड ! फिर भी मैँ भूख से मर रहा हूँ! ना मेरा कोई भविष्य है ना ही मेरे बच्चोँ का! मेरे बच्चे खैराती स्कूलोँ मेँ तालीम के नाम पर अपना वक्त बरबाद कर रहे हैँ! उन्हेँ हिँदी मेँ शिक्षा दी जा रही है! जबकि सरकार ये जानती है कि सरकारी दफ्तर हो या मल्टी नेशनल कँपनी अँग्रेज़ी के बिना कहीँ नौकरी नहीँ मिलती! डाक्टरी, इँजीनियरिँग, कानून, एमबीए, सारी बडी डिग्रीयाँ कानवेँट मेँ पढे अमीरोँ के बच्चोँ को ही बाटी जा रही हैँ! ऐसे मेँ अगर मेरा बच्चा सरकारी बिजली के खँबे के नीचे पढ कर अँग्रेज़ी सीख भी जाता है तो, उसे लाखोँ रुपये खर्च कर महँगी डिग्रीयाँ दिलाना मेरी औकात के बाहर की बात है! मेरे पास तो दो वक्त की रोटी का भी जुगाड नहीँ! तो फीस के लिये लाखोँ रुपये कहाँ से लाउँगा? क्योँकि मैँ एक आम आदमी हूँ! और मेरे बच्चे आम ही बनने के लिये मजबूर हैँ! खास तो ठाकरे साहब हैँ....! खास तो किँग खान हैँ.....! क्योँकि ठाकरे साहब ये जानते हैँ कि राजनीति के लिये ताकत का इस्तेमाल कब और कहाँ करना चाहिये! किँग खान भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैँ, कि विवादोँ से फिल्मोँ को फायदा ही नहीँ पहुँचता बल्कि अवार्ड भी मिलते हैँ! विदेशोँ मेँ जाकर अब वो ये बता सकते हैँ कि अपने ही देश मेँ उनकी फिल्म का कितना विरोध हुआ! खास है हमारी पुलिस जो अँडरवर्ल्ड और आतँकीयोँ से लडॅने मेँ कभी इतनी तैयार नहीँ दिखी जितनी इस फिल्म को रिलीज़ कराने के लिये मुस्तैद है! खास है हमारी सरकार जो आम आदमी यानि मेरे लिये साठ सालोँ से सोच-सोच कर बूढी हो गई है! मेरा क्या है मैँ तो आम आदमी हूँ! मैँ महँगाई के बोझ तले दबा जा रहा हूँ! लेकिन किसी को इसकी कोई फिक्र नहीँ! उल्टा सरकार कीमतेँ बढाने की तैय्यारी कर रही है! आटा-दाल मेरी पहुँच से बाहर की बात हो गये हैँ! चीनी खाना तो मैँ शरद पँवार साहब के सुझाव देने के पहले ही छोड चुका था! क्योँकि मैँ जानता हूँ कि ज़्यादा चीनी से डयबटीज़ हो जाता है! पर क्या पँवार साहब ने चीनी खाना छोड दिया? वो तो पोरबँदर के एक साधारण दीवान का बेटा था जो कहने के पहले खुद उस पर अमल करता था! पँवार साहब तो बडे उद्योगपति हैँ! और भारत सरकार के इतने बडे मँत्री हैँ! उनहेँ भला चीनी छोडने की क्या ज़रूरत? बीते सालोँ मेँ जब मुझे गन्ने के दाम नहीँ मिल रहे थे...मैँ यूपी के चौराहोँ पर मेहनत से उपजाई गन्ने की फसल जला रहा था....तब भी तो चीनी मिलोँ के मालिक सरकार से मिलकर मिठाईयाँ खा रहे थे! उस वक्त भी सरकार मेरी आत्महत्याओँ से बेफिक्र थी! विदर्भ मेँ भी तो मैँ ही मर रहा था! उत्तर भारतीय और मराठी किसान दोनोँ के दुख-दर्द बाँटने वाला कोई नहीँ था! क्योँकि दोनोँ ही रूपोँ मेँ वो मैँ ही तो था आम आदमी! और आज भी जब महँगाई और बेरोज़गारी मुझे निगल रही है...मुझे बचाने वाला कोई नहीँ है! क्योँकि माई नेम इस कामन मेन! ए पूअर कामन मेन ओफ इँडिया! मेरे दर्द और भी हैँ क्या आपके पास सुनने का वक्त है?

4 comments:

alka mishra said...

संजय जी ,बहुत ज्वलंत बात कही आपने ,आम आदमी के लिए ही सब कुछ फिर भी आम आदमी की हैसियत कुछ भी नहीं
हिम्मत वाला काम किया आपने
बधाई

योगेश गुलाटी said...

ee sanjay kaun hai bhai? hamar naam to yogesh rahin tha ab tak. common man ka to naam bhi yaad nahi rakht? fir bhi badhai ke liye tohar shukriya.

प्रिया said...

Ek vote ki shakti hai common man ke pass use bhi, jaati aur majhab ke naam par baant diya gaya hai.....Dhang ke neta election mein khade hi nahi hote ya fir laye hi nahi jaate.....Film stars ka accha...filmo se retire to raajniti ki taraf rukh...

योगेश गुलाटी said...

एक कवियत्री की आम आदमी के लिये की गई इस कमेँट के लिये शुक्रिया! लेकिन प्रिया जी, जिस देश मेँ पचास फीसदी मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग ही नहीँ करते होँ वहाँ वोट की ताकत के बारे मेँ बात करना बेमानी है! चाय पिला-पिला कर किस किस को जगायेँगे आप? यहाँ तो हर शाख पर पप्पू बैठा है! जो सिस्टम को आये दिन कोसता रहता है! लेकिन खुद कभी वोट तक नहीँ करता! पन्द्रह बरस की उम्र मेँ खुदीराम बोस को अँग्रेजोँ ने फाँसी पर लटका दिया गया था! और तेईस साल की उम्र मेँ भगत सिँह ने भी अपने साथियोँ के स्सथ फाँसी का फँदा चूमा था ! क्योँकि ये लोग स्वराज चाहते थे! यकीन नहीँ आता क्या यही था वो स्वराज? आज हमारी सँसद मेँ चालीस फीसदी एसे साँसद हैँ जिन पर गँभीर अपराधिक मुकदमेँ चल रहे हैँ! साठ साल के हमारे बूढे गणतँत्र की सच्चाईयाँ और भी हैँ......सुना है, कविताओँ की दुनिया बडी सुँदर होती है!