Thursday, 13 May 2010

गरीबी हटाओ, लेकिन गरीबों को बख्श दो: दिल्ली से योगेश गुलाटी

दो भारत बसते हैं यारों मेरे हिन्दुस्तान में....इक रहता सोने की बस्ती,एक रहता कब्रिस्तान में!!हां वो बिल्कुल ऎसा ही लग रहा था....मानो वो किसी कब्रिस्तान से ही उठ कर आया हो! वो किसी ज़िन्दा भूत से कम नहीं लग रहा था! उसका जिस्म लगभग नंगा था...! मांस पर उभरी हड्डीयों का कंकाल उसकी बेबसी और गरीबी की कहानी बयां कर रहा था! उसका वो चेहरा अब भी मेरी आंखों के सामने घूम रहा है! गरीबी का वो ज़िंदा भूत मुझे सोने नहीं दे रहा! नहीं मैं भूत से बिल्कुल नहीं डरता, क्या भूत इंसान नहीं होते? होते हैं वो भी इंसान होते हैं.....अज नहीं कभी तो होते थे? लेकिन मुझे तो डर उनसे लगता है जो इंसान होकर भी इंसान नहीं! जो महलों में रहते हैं लेकिन झोंपडी में रहने वालों का दर्द नहीं समझते! जो एसी में रहते हैं लेकिन तपती दुपहरी में उनके आलीशान बंगलों की नींवें भरने वालों की पीड वो नहीं समझते! वो अंग्रेज़ी में बतियाते हैं लेकिन हिंदुस्तानी आत्मा की तकलीफ को नहीं समझते! जिन गरीबों की मेहनत से वो अपना साम्राज्य खडा करते हैं, उन गरीबों को दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम भी नहीं करते!चारों तरफ से चमक रहा दिल्ली का कनाट प्लेस! इस इलाके की तस्वीर बदलने का काम अब भी पूरे ज़ोर शोर से होरहा है! पुराने हो चले कनाट प्लेस को बिल्कुल आधुनिक बना दिया गया है! सफेद रंग में रंगी इसकी इमारतें संगेमरमर को भी शर्मिंदा कर रही हैं! हर-तरफ चका-चौंध, सुंदरता, और अइश्वर्य बिखरा है! इसे देख कर एक विकसित भारत की तस्वीर बनने लगती है! चारों और विदेशी सैलानीयों का जमावडा और चमचमाती गाडियों का शोर....इन सब की बीच कनाट प्लेस सर्कल पर बने मेट्रो स्टेशन की सीढीयों से नीचे उतरते हुए मेरे पैर अचानक थम गये! हां गरीबी का वो ज़िंदा भूत वहीं बैठा था! मैंने देखा लोग उसे हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए दूर से निकल रहे हैं.....शायद सराकार की ही तरह उन्हें भी दिल्ली की शान में गरीबी का वो धब्बा सुहा नहीं रहा था! कुछ दिन पहले कनाट प्लेस से गरीबों और भिखारियों को हटाने की मुहीम सरकार ने चलाई थी! जिसमें सारे गरीबों को उस इलाके से हटा दिया गया था! लेकिन आश्चर्य गरीबी का वो ज़िंदा भूत वैभव की प्रतीक मेट्रो की सीढीयों पर बैठा...सरकार की उस मुहीम को मुंह छिढा रहा था! उसकी हालत वाकई में दयनीय थी! तपती दुपहरी मेँ उसके तन पर एक कपडा ना था! गरीबों की जान बडी सख्त होती है.....वो इतनी आसानी से नहीं निकलती! शायद इसीलिये वो ज़िंदा था! लेकिन उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था! हां मैं भी नहीं! मुझे लगा वो भूखा है! मैं जानता हूं दस रुपये में दिल्ली में खाना नहीं मिलता, फिर भी मैंने दस का एक नोट उसके हाथ में थमा दिया! लेकिन मैं जानता था ये काफी नहीं है....! उसे कपडों की ज़रूरत थी! उसे दवाओं और इलाज की ज़रूरत थी! इन सबके बाद उसे काम की ज़रूरत थी! मैं ये सोछ ही रहा था कि पीछे से एक रौबदार आवाज़ आई...."तू फिर यहां आकर बैठ गया?" तुझे भी ठिकाने लगाना पडेगा! मैंने पीछे मुड कर देखा, वो दिल्ली पुलिस का सिपाही था! उसे भी सरकार की ही तरह वो गरीबी का ज़िंदा भूत शायद अच्छा नहीं लग रहा था! सिपाही की बात सुनकर वो डर गया! उसकी उम्र 25-30 की रही होगी! लेकिन वो इतना कमज़ोर था कि उठ नहीं पा रहा था! लेकिन जब वो उठ कर खडा हुआ तो....लोग उससे कट कर गुज़रने लगे...मानो इन्सान नहीं वाकई में कोई भूत हो! हां गरीबी का वो ज़िंदा भूत खडा हो गया था! लेकिन उसने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया! वो अपने लिये वो जगह तलाशने लगा, जहां अमीर ना हों! लेकिन मैं जानता था कि कम से कम कनाट प्लेस में तो ऎसी कोई जगह नहीं थी!

1 comment:

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 18 मई 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट शान का धब्‍बा शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। यहां पर आपको स्‍कैनबिम्‍ब मिल जाएगा http://blogonprint.blogspot.com/