Friday, 23 January 2009

आइए, भारत की गरीबी का जश्न मनाएं!



योगेश गुलाटी


पिछले कुछ बरसों से पश्चिमी मीडिया में (खासकर अमेरिका में) भारत की आर्थिक प्रगति के बारे में इतना कुछ कहा जा चुका है कि यहां के जनमानस में इस मुल्क (भारत) की खास तस्वीर बन गई। जहां कभी शहरों में सड़कों पर गाएं, सपेरे और हाथी घूमा करते थे, ऐसे गरीब देश में हजारों-लाखों आईटी एक्सपर्ट्स का होना किसी चमत्कार से कम नहीं समझा गया। दो महीने पहले जब मुंबई की शानदार इमारतों पर आतंकी हमले की आंखोंदेखी छवियां अमेरिकी लोगों ने टीवी और इंटरनेट पर देखीं तो उनका दिल भारत के प्रति सहानुभूति से भर आया। यह वही देश था, जिसे थोडे़ दिनों पहले प्रेज़िडंट बुश और अमेरिकी कांग्रेस ने न्यूक्लिअर डील का तोहफा दिया था। मुंबई ने अमेरिकी दिलों में एक महत्वपूर्ण जगह बना ली। मुंबई हमले के कुछ ही दिनों बाद झोपड़पट्टी की जिंदगी में गरीबी और बदहाली की नई परिभाषाएं दर्शाती हुई चमक-दमक वाली फिल्म स्लमडॉग मिलिनेअर अमेरिका के कई शहरों में रिलीस हुई। जब इस फिल्म को हॉलिवुड में चार-चार गोल्डन ग्लोब पुरस्कारों से सम्मानित किया गया तो लगा जैसे अमेरिकी दिलों में इंडिया की हर चीज के लिए प्यार उमड़ आया है, उसकी गरीबी और बदहाली के लिए भी। हॉलिवुड स्थिति अंतरराष्ट्रीय फिल्म पत्रकारों का संगठन चुनी हुई फिल्मों और टीवी सीरियलों को 'गोल्डन ग्लोब' से पुरस्कृत करता है। स्लमडॉग मिलिनेअर को हॉलिवुड में मिली अभूतपूर्व सफलता के बाद इसे ऑस्कर में सम्मानित करने का रास्ता खुल गया है। सचमुच संगीतकार ए. आर. रहमान में कामयाबी के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां कभी पंडित रविशंकर भी नहीं पहुंच सके। इस फिल्म के ब्रिटिश डाइरेक्टर डैनी बॉयल बवर्ले हिल्स और न्यू यॉर्क में अपनी प्रसिद्धि का जश्न मनाने के बाद अब इंडिया में स्लमडॉग... के रिलीस को लेकर उत्साहित नजर आ रहे हैं। आखिर इस फिल्म में ऐसी कौन-सी बात है, जिसने पश्चिमी दर्शकों और समीक्षकों का मन मोह लिया स्लमडॉग... कहानी है गरीबी और अमीरी के भेदभाव की। यह कहानी है गरीबी और आपराधिक दुनिया के बीच संबंधों की। यह कहानी है भाई-भाई के बीच धोखेबाजी की। लेकिन यह कहानी एक अनाथ बच्चे की मेहनत या प्रतिभा की उतनी नहीं है, जितनी कि एक संयोग। जिसके कारण वह कौन बनेगा करोड़पति प्रोग्रैम के सभी सवालों का उत्तर दे पाता है। यह उस जीवट या आत्मविश्वास की कहानी नहीं है, जैसा अमिताभ बच्चन जंजीर, कुली और दीवार जैसी फिल्मों में भारतीय दर्शकों को दिखाते रहे। जूते पॉलिश करनेवाले एक अनाथ के यह कहने पर कि 'मैं जमीन पर फेंके हुए पैसे नहीं उठाता' सिनेमा हॉल में तालियां गूंज उठती थीं। स्लमडॉग... एक निष्ठुर फिल्म है, जिसका निर्देशक गरीब के सपनों का मजाक उड़ाते हुए अनाथ बालक को पाखाने से भरे कुंड (वेल) में डुबकी मारते दिखाता है। फिल्म के एक दृश्य में अमिताभ बच्चन के स्लम कॉलोनी में हेलिकॉप्टर से उतरने की खबर बस्ती में आंधी की तरह फैल जाती है। लोग पागलों की तरह हेलिकॉप्टर की तरफ दौड़ते हैं। उसी वक्त बालक जमाल को उसके दोस्त एक शौचालय में बंद कर देते हैं। जमाल करे तो क्या करे! वह नीचे पाखाने के गहरे कुंड की तरफ देखता है, नाक दबाकर डुबकी लगा देता है और दूसरी तरफ से बाहर निकलता है, सिर से पांव तक पाखाने (शिट) से लिपटा हुआ। उसी गंदगी में सना वह अमिताभ की तरफ जाता है ऑटोग्राफ मांगने। जरा सोचिए, यह कैसी कल्पना है! बॉलिवुड के पलायनवादी डाइरेक्टर मनमोहन देसाई ने भी ऐसे सीन की कभी कल्पना नहीं की होगी। अपनी चमक-दमक और तेज रफ्तार के कारण स्लमडॉग... दर्शक को कुछ सोचने का मौका नहीं देती और घटनाओं को संजोग की डोर में जल्दी-जल्दी पिरोते हुए आगे बढ़ जाती है, जैसे कि ट्रेन छूटने के पहले आप फास्ट फूड रेस्तरां में खाना झपट रहे हों। अपुर संसार में सत्यजित राय ने, मेघे ढाका तारा में ऋत्विक घटक ने और अंकुर में श्याम बेनेगल ने अपनी कलात्मक और तीखी शैली में गरीबी और सामाजिक अन्याय का गहरा रिश्ता दिखाया था, लेकिन सत्यजीत रॉय को उनकी मृत्यु शैया पर पहुंचने के बाद ही हॉलिवुड ने ऑस्कर के योग्य समझा जबकि घटक, विमल रॉय या बेनेगल को पहचानने से भी इनकार किया। ब्रिटिश राज के दौरान सामान्य भारतीयों का स्वाभिमान दिखानेवाली बॉलिवुड फिल्म लगान भी ऑस्कर के शामियाने में न पहुंच सकी। शीशे की तरह पारदर्शी और हृदयहीन फिल्म स्लमडॉग... हमें यह याद दिलाती है कि भारत में अनाथ बच्चों के लिए एक ही जगह है, जहां से उन्हें अंधा बनाकर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है। ताजमहल के गाइड चोर और फरेबी होते हैं। स्लमडॉग... से हमने यह भी जाना कि वहां पले-बढ़े बच्चे के लिए करोड़पति बनना एक संजोग ही हो सकता है। स्लमडॉग... में जमाल सभी सवालों का जवाब इसलिए जानता था कि उन सवालों का उसकी बीती जिंदगी से सीधा नाता था। लेकिन गरीबी में पलकर भी प्रतिभाशाली बनने के अनेक उदाहरण भारत में मिल जाएंगे, जोकि फिल्मों के विषय बन सकते हैं। भारतीय कलाकार और टेक्नीशियनों को लेकर पश्चिम तर्ज पर मुंबई की स्लम जिंदगी का चित्रण करने वाली फिल्म 'गोल्डन ग्लोब' या 'ऑस्कर' पुरस्कार जीत सकती है और हॉलिवुड भारत की उस पुरानी तस्वीर पर मुहर लगा सकता है कि आर्थिक रूप से प्रगतिशील यह देश असल में हाथी, सपेरे और स्लमडॉग का देश है। आइए, हॉलिवुड के साथ मिलकर हम सभी इस गरीबी के जश्न में शामिल हो जाएं।

1 comment:

Anonymous said...

Yes its shamefull for India.