Monday, 2 February 2009
न्यायपालिका बनाम लोकतंत्र
आपको मध्य प्रदेश के प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या का मामला याद होगा। वे कॉलिज चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू करना चाहते थे, जिसमें एबीवीपी के कुछ छात्र उग्र हो उठे और उन्होंने प्रोफेसर सब्बरवाल की इतनी पिटाई की कि उनकी जान चली गई। उस समय मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी और जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि वह दोषी छात्रों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं कर सकेगी। वहां की स्थानीय अदालत में पीडि़त पक्ष के लिए न्याय पाना संभव नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को रेखांकित किया और वह केस उज्जैन (म.प्र.) से नागपुर (महाराष्ट्र) स्थानांतरित कर दिया। यहां हम व्यक्तिगत अपराधों की सुनवाई (जैसे जयललिता या अमरमणि त्रिपाठी के मामले) दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन मामलों की बात कर रहे हैं, जिनमें ऐसी भीड़ ने कोई अपराध किया, जिसे उस पार्टी का समर्थन प्राप्त हो जो लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई हो, सत्ता में हो और जिसमें अपराधियों को दंडित करने की इच्छा या नैतिक साहस नहीं हो। ऐसी नजीरों में गुजरात के दंगों को भी शामिल किया जा सकता है। उस समय भी जाहिरा शेख और बिलकिस बानो के मामले गुजरात से मुंबई ट्रांसफर किए गए। इतना ही नहीं, जब राज्य पुलिस ने दंगों से संबंधित दो हजार मामले यह कह कर बंद किए कि वह दोषियों को ढूंढने में असमर्थ है, तब सुप्रीम कोर्ट ने लगाम कसते हुए राज्य सरकार को यह निर्देश दिया कि वह एक नई हाई लेवल टीम बनाए, जो यह देखे कि क्या उनमें से किसी भी केस को दोबारा खोलने की कोई संभावना हो सकती है, कहीं पुलिस ने उन्हें यूं ही रफादफा करने की कोशिश तो नहीं की है। उस समय मुसलमानों के खिलाफ दंगे हुए थे, राज्य में बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में एनडीए की, जिसे अल्पसंख्यकों की पिटाई और हिंदुओं की हिंसा की संतुष्टि चुनावी नजरिए से लाभ पहुंचा सकती थी। आप बहस के लिए कह सकते हैं कि जो गलत है, सो गलत है। या नियम-कानून भी कोई चीज है। पर डिमॉक्रसी में सिद्धांत और संविधान जमीन पर किस तरह अपना रूप बदल लेते हैं, यह हम सब जानते हैं। दार्शनिक प्लेटो ने 'रिपब्लिक' में इस स्थिति की कल्पना की थी। उसने लिखा कि इसमें संदेह नहीं कि डिमॉक्रसी दूसरी शासन व्यवस्थाओं से बेहतर होती है, लेकिन उसका भी क्षरण और पराभव होता है और वह भीड़तंत्र (मॉबोक्रेसी) में बदल जाती है। तब संख्या बल से सही और गलत की परिभाषा निर्धारित होने लगती है और बहुसंख्यक अपने हिसाब से चीजों को तोड़-मरोड़ लेते हैं। ऐसी स्थितियों में हमारी स्वतंत्र न्यायपालिका की भूमिका किसी उद्धारक या रक्षक की तरह नजर आती है। हायर जुडिशरी को चोरी, घूसखोरी और जमीन जायदाद के मामलों में उलझने के बदले, अपनी इस नई भूमिका में आगे बढ़ना चाहिए।
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1 comment:
I agree.
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