Saturday, 28 March 2009

कल थीं कांग्रेस की एमएलए, आज मजदूरी को मजबूर


आंध्र प्रदेश की दलित महिला सुक्का पगदालु की कहानी चुनावी माहौल में खास दिलचस्पी के साथ सुनी - पढ़ी जा रही है। 1972 में वह आंध्र विधानसभा की सदस्य चुनी गईं और बतौर एमएलए अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। बाद में बतौर सरपंच एक बार फिर उन्हें जन प्रतिनिधि के रूप में काम करने का मौका मिला। उनके पास थोड़ी सी जमीन है , जिससे कुछ अनाज वह पैदा कर लेती हैं , लेकिन साल भर का खर्च पूरा करने और गाढ़े वक्त के लिए दो पैसे जुटा कर रखने के लिए उन्हें और उनके पति को मजदूरी करनी पड़ती है। इस कथा को सुन कर कुछ लोगों में करुणा का संचार हो सकता है , तो कुछ उस पार्टी के प्रति सात्विक क्रोध से भर सकते हैं , जिसने अपने टिकट पर चुनी गई जन प्रतिनिधि को मजदूरी करने के लिए छोड़ दिया है। इस करुणा और क्रोध के मूल में यह धारणा है कि जन प्रतिनिधि बनते ही किसी भारतीय जन का जीवन इतना बदल जाता है कि उसके दोबारा मजदूरी या किसानी के कष्टों में वापस लौट जाने की बात भी नहीं सोची जा सकती। राजनीति और राजनेताओं की जो तस्वीर हमारे मन में बसी हुई है , उससे यह धारणा बनना स्वाभाविक है , हालांकि आम भारतीय जनजीवन को लेकर इसमें मौजूद हिकारत पर अलग से गौर किया जाना चाहिए। पेशे से मूंगफली किसान जिमी कार्टर अमेरिका के राष्ट्रपति बने और दूसरे कार्यकाल के लिए रोनाल्ड रीगन से चुनाव हारने के बाद खेती - किसानी में वापस लौट गए। इसमें किसी को कोई अजीब बात नहीं लगी तो क्या इसलिए कि कार्टर के खेतों का आकार औसत हिंदुस्तानी किसान के कुल रकबे का करीब हजार गुना था ? कोई प्रोफेसर राजनीति से हटने के बाद अपनी प्रोफेसरी जारी रख सकता है तो कोई मजदूर विधानसभा या संसद से विदा होने के बाद अपने मजदूरी के संसार में वापस क्यों नहीं लौट सकता ? इस पर करुण या क्रुद्ध होने की जरूरत हमें शायद इसलिए भी महसूस होती हो , क्योंकि अपने देश में किसानी या मजदूरी की कोई गरिमा नहीं रह गई है। बहरहाल , इससे एक ज्यादा बड़ी बीमारी का भी संकेत मिलता है। बेईमान राजनेताओं से नफरत करते हुए हम इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि किसी ईमानदार व्यक्ति का राजनीति से कोई रिश्ता हो ही नहीं सकता। इसका दूसरा पहलू यह है कि कोई ईमानदार व्यक्ति यदि राजनीति में आ भी आ जाए तो उससे इतनी ज्यादा तड़क - भड़क की अपेक्षा की जाती है कि जल्दी से जल्दी ईमानदारी से पीछा छुड़ा लेने के अलावा उसके पास और कोई चारा ही नहीं बचता। इसलिए इस चुनावी परिवेश में सिर पर मिट्टी की टोकरी उठाए सुक्का पगदालु की तस्वीर देख कर कृपया दुखी न हों। कोशिश करें कि उनके जैसे लोग आगे भी एमपी - एमएलए बनें ताकि राजनीति में थोड़ी शर्म बाकी रहे।

5 comments:

अफ़लातून said...

सुक्का पगदालु की कथा प्रेरक है । यहां प्रस्तुत करने के लिये आपका शुक्रिया । मजदूरी करते हुए वे किसी राजनीति से जुड़ी हैं या नहीं यह पता कीजिए।

निशाचर said...

जब मैंने आपकी पोस्ट का शीर्षक पढ़ा तो मैं आपके प्रति आक्रोश से भर उठा था कि क्यों हम श्रम की गरिमा को सम्मान नहीं देते?

क्या एक बार राजनीति में आ जाने के बाद येन केन प्रकारेण धन - संपत्ति अर्जित करना ही जनप्रतिनिधिओं का एकमात्र ध्येय होना चाहिए?

क्यों हम एक पूर्व जनप्रतिनिधि को मेहनत और ईमानदारी से रोजी - रोटी कमाते देख उस पर तरस खाते हैं?

क्या वह भ्रष्ट, गुंडे /माफिया में परिवर्तित हो गया होता और हमारी छाती पर मूंग दलता तभी हमें संतोष मिलता?

खैर सभी बातों का जवाब आपने उत्तरोत्तर अपनी पोस्ट में ही दे दिया है अतः इस प्रेरक पोस्ट के लिए बधाई. काश! सुक्का जैसे कुछ और लोग भी राजनीति में कदम धर पाते.

संगीता पुरी said...

सुक्का पगदालु जैसों की कथा पढकर बहुत कष्‍ट होता है ... ईमानदारी की कोई कीमत नहीं होती आज के युग में।

Anonymous said...

हमें सुक्‍का पगदालु की कथा सुनकर न तो कष्‍ट होता है न बुरा लगता है बल्कि गर्व होता है सुक्‍का पर। हमारा नमस्‍कार सुक्‍का को। जय हो।

not needed said...

योगेश जी: बहुत अच्छा कहा आपने.