योगेश गुलाटी ........
वामपंथ की ऐतिहासिक भूलों का सिलसिला थम नहीं रहा है। 1996 की बात है, प्रकाश करात के नेतृत्व में सीपीएम का पोलित ब्यूरो ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री न बनने देने को लेकर अड़ गया था। बाद में ज्योति बाबू ने इसे अपनी पार्टी की ऐतिहासिक भूल कहा था, हालांकि उस कथित वैचारिक संघर्ष से ही पाटीर् के शीर्ष पर पहुंचे करात आज भी इसे कोई भूल नहीं मानते। लेकिन 2009 के आम चुनाव में सीपीएम के सांसदों की तादाद जब 43 से घट कर 16 पर और पूरे वाम मोर्चे की 62 से घट कर 24 पर आ गई, तब भी वाम नेता इसे अपनी किसी वैचारिक गलती का नतीजा नहीं मानते तो इसका क्या अर्थ लगाया जाए? वाम नेता अगर ईमानदारी से सोचें तो उनकी पराजय में राज्य स्तरीय कारणों की भूमिका तो है ही, लेकिन उन्हें अगर भविष्य के लिए खुद को तैयार करना है तो पिछले पांच सालों की अपनी केंद्रीय राजनीति की चीरफाड़ पूरी निर्ममता से करनी होगी। यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देते हुए जो मुद्दे उन्होंने उठाए, उनमें ज्यादातर राष्ट्रहित में थे। इसके बावजूद देश में लगातार उनकी गैर-जिम्मेदार और विघ्न-संतोषी छवि क्यों बनती गई, इस बारे में उन्हें गंभीरता से विचार करना चाहिए। खासकर चुनाव से ठीक पहले यूपीए को हराने का एकमात्र लक्ष्य लेकर जिस तरह उन्होंने मायावती, देवगौड़ा और जयललिता जैसे छंटे-छंटाए अवसरवादियों से तालमेल किया, उसका वाम राजनीति से क्या संबंध हो सकता है? इन अप्रीतिकर सवालों को छोड़ कर वाम नेता अगर खुशफहमियां गढ़ने में ही जुटे रहते हैं तो फिर मार्क्स ही उनका भला करें!
3 comments:
बिलकुल सही कहा। लगता है अब सीपीएम बिखर कर ही कुछ बन सकती है।
सचमुच निर्मम आत्म-बिश्लेषण की जरूरत है अन्यथा और बुरे दिन आनेवाले हैं।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती...
राजशाही गयी नहीं देश से...
हम तो हैं ही गुलाम गोरी चमडी के...
और भारत तो इनकी बपौती ही है!!!
पर कांग्रेस को इतनी सीटें भी नहीं मिली की सब जे जे कार करें!!!
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