Thursday, 16 July 2009
शोपिया का सच
29 मई को 17 साल की आसिया जान अपनी 24 वर्षीय गर्भवती भाभी नीलोफर के साथ बगीचे में गई थीं। उनके वहां से नहीं लौटने पर घर वालों ने तलाश की और मायूस होकर पुलिस के पास गए। पुलिस ने शुरू में इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। नाले से दोनों की लाश बरामद होने के बाद नागरिकों में गुस्सा फैलने लगा। लोग कहते रहे कि दोनों की इज्जत लूटी गई है, लेकिन पुलिस टस से मस नहीं हुई और 1 जून को मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से कहलवा दिया कि दोनों की मौत डूबने से हुई है। 6 जून को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रदेश कांग्रेस के नेता सैफुद्दीन सोज को बुलाकर बात की। सोज के श्रीनगर लौटने के बाद रेप का केस दर्ज हुआ। लेकिन इस बीच बहुत नुकसान हो चुका था। श्रीनगर के भारतविरोधी प्रेस और मुजफ्फराबाद के मीडिया ने पूरे मामले को इस तरह पेश किया मानो कश्मीर में सुरक्षा बल औरतों की इज्जत पर हाथ डालने के लिए आजाद हैं। इसके बाद जले पर नमक डालने का काम किया जस्टिस जान कमिशन की रिपोर्ट ने, जिसे कश्मीर के वित्त मंत्री अब्दुल रहीम ने एक ऐतिहासिक दस्तावेज बना डाला। रिपोर्ट में आसिया और नीलोफर को इशारे से बदचलन बताते हुए आसिया के भाई शकील पर अनैतिक आचरण का आरोप लगा दिया गया, जिसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि फ्लेश ट्रेड में शामिल किसी व्यक्ति की हत्या हो जाए तो मामले को रफा-दफा कर दिया जाना चाहिए और न्याय का कोई तकाजा नहीं बनता। जिस जस्टिस जान के दस्तखत से रिपोर्ट पेश की गई, वह अब कह रहे हैं कि ये अंश पुलिस रिपोर्ट के हैं, जिसे मुख्य रिपोर्ट में उन्होंने शामिल नहीं किया था। जस्टिस जान यह भी कह रहे हैं कि पुलिस ने अलग से 60 गवाहों के बयान लिए थे, जिनके आधार पर उसने रिपोर्ट पेश की, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया था। लेकिन शोपियां के एसपी का कहना है कि सभी गवाहों के बयान एक साथ लिए गए। जाहिर है, जस्टिस जान और एसपी, दोनों का कथन सही नहीं हो सकता। शोपियां के लोगों और जस्टिस जान के मुताबिक, कई महत्वपूर्ण सबूत नष्ट कर दिए गए। आसिया और नीलोफर के संबंधियों का यह भी आरोप है कि शोपियां के एसपी जावेद इकबाल मट्टू ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को प्रभावित करने की कोशिश की। लोग जान कमिशन की रिपोर्ट पर यकीन नहीं कर रहे, इसलिए उसे अब दाखिल दफ्तर करने का कोई विकल्प नहीं है। बहुत से सबूत नष्ट कर दिए गए हैं, फिर भी कुछ सवालों के सही जवाब मिल जाएं तो इंसाफ का तकाजा काफी हद तक पूरा हो सकता है। आसानी से पता लगाया जा सकता है कि पहले दिन से सचाई पर पर्दा कौन डाल रहा था और मुख्यमंत्री के मुंह से गलतबयानी कराने का वास्तव में जिम्मेदार कौन है। यह जानकारी भी जुटाना कठिन नहीं है कि आसिया और नीलोफर के चरित्र पर उंगली किन पुलिसकर्मियों ने उठाई। गांव की अनपढ़ दाइयां भी शरीर देखकर बता सकती हैं कि फलां महिला की इज्जत लूटी गई या नहीं। इस बात की भी पुष्टि हो सकती है कि एसपी मट्टू पोस्टमॉर्टम रूम में गए थे या नहीं। पहला पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टरों ने पूरे यकीन से कैसे कह दिया कि रेप नहीं हुआ? जब कि जिस एक डॉक्टर निकहत ने रेप की पुष्टि की, उन्हें निलंबित कर दिया गया। निलंबन किसके कहने से हुआ? स्पष्ट है, निलंबन के पीछे जो अधिकारी हैं वे भी सचाई छिपाना चाहते थे। परिस्थितियां बता रही हैं कि आसिया और नीलोफर के साथ जो हुआ, वह अपराध की साधारण घटना नहीं है। हो सकता है कि इसके पीछे गहरी साजिश हो। यह भी संभव है कि सरकारी एजेंसियों से जुड़े कुछ लोगों का किसी षडयंत्र के तहत हाथ हो। कश्मीर में आग भड़काते रहने के लिए इसी तरह के हादसे तो सबसे ज्यादा मददगार होते हैं। इसलिए कुछ अफसरों का तबादला पर्याप्त नहीं है। सख्ती से जवाबदेही तय की जानी चाहिए। कश्मीर जैसे अति संवेदनशील इलाके में हुई इस घटना ने पूरे देश को बुरी तरह नहीं झकझोरा है। जिस देश की संसद में कोई मंत्री यह कहकर बाइज्जत निकल जाए कि दंगों में गर्भवती महिलाओं के साथ रेप और हत्या जैसी घटनाएं तो होती ही रहती हैं, वहां शोपियां की त्रासदी से ज्यादा विचलित होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन सवाल यह है कि आप किस तरीके से कश्मीर को भारत के साथ रखना चाहते हैं? विधि की सामान्य प्रक्रिया से संबंध विच्छेद कर या पुलिस स्टेट बनाकर तो कतई नहीं। शोपियां के लोगों को सलाम कि भारतीय व्यवस्था से न्याय की आशा उन्होंने नहीं छोड़ी है। शोपियां में आंदोलन चला रही मजलिस-ए-मुशावरत ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से तुरंत हस्तक्षेप की मांग की है। हाई कोर्ट बार असोसिएशन के अध्यक्ष मियां अब्दुल कयूम और विधि विशेषज्ञ सैयद तसद्दुक हुसैन सीबीआई जांच चाहते हैं। उनकी मायूसी के नतीजे अच्छे नहीं होंगे। मुशावरत ने चेतावनी भी दे दी है कि इंसाफ के लिए वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय तक जाएगी। दुनिया के मुस्लिम मुद्दों पर विचार के लिए अमेरिकी प्रशासन की विशेष दूत फारहा पंडित से संपर्क करने की आवाजें उठने लगी हैं। हमें पाकिस्तान की तरफ से कश्मीर समस्या के नए सिरे से अंतरराष्ट्रीयकरण की चिंता सताती रहती है। हमारे लिए उससे अधिक चिंताजनक आसिया और नीलोफर केस का अंतरराष्ट्रीयकरण होना चाहिए। किसी भी फौजी तैयारी से हजार गुना ज्यादा असरदार कश्मीरी अवाम का यह यकीन होगा कि भारत का निजाम नाइंसाफी नहीं होने देगा। शोपियां का हादसा एक केस स्टडी है कि हम राष्ट्र राज्य की जड़ों को किस तरह मजबूत करना चाहते हैं। न्याय और अन्याय का अहसास तय करेगा कि रूस के चेचेन्या और चीन के उइगुर सूबे से कश्मीर क्यों और किस तरह भिन्न और भारत का अभिन्न अंग है।
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1 comment:
वैसे जब कोई आतंकवादी किसी लड़की से बलात्कार करता है .तब ऐसे आन्दोलन क्यों नहीं निकलते ...ये भी एक सोच का विषय है तहलका में इसके पीछे पूरे कारणों पर एक समझदारी भरा लेख है .शोपिया के बाद वहां दूसरा कांड हुआ है ओर लोग फिर सडको पर उतर आये है....अब साधारण अपराध भी अगर उस एरिया में होगे तो उसका सीधा जिम्मा उन लोगो पे जाएगा जो वहां कानून व्यवस्था देख रहे है .ओर सुरक्षा बल तो सबसे पहले निशाना बनते है...जाहिर है वहां परिस्तिथियों को अपने मन मुताबिक इस्तेमाल कर रही कुछ शक्तिया है जो भारत के खिलाफ है ...ऐसे में सभी को चाहे पोलिस हो या सेना एक अत्रिरिक्त सावधानी ओर सवेदनशीलता की जरुरत है....
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