पाकिस्तान में जो स्थिति है, उसे अशांति कहना सचाई से आंख मूंदना है। पाकिस्तान में आज सत्ता का कोई एक निश्चित केंद्र नहीं रह गया है। न चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बने आसिफ अली जरदारी, न उनसे चुनाव हारने के बाद भी पाकिस्तानी राजनीति में खासी जगह रखने वाले नवाज शरीफ और न वह फौज ही, जो ऐसे हर मौके पर सत्ता हथिया लेने का खेल खेलती आई है। जब इन तीनों की ऐसी हालत है, तो पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की तो बिसात ही क्या है, जो हर तरह से एक पिटे मोहरे भर रह गए हैं। पाकिस्तान की ऐसी हालत क्यों हुई है? जवाब पिछले दिनों राष्ट्रपति जरदारी ने खुद ही दिया है कि हमने छोटे क्षुद्र राजनीतिक लाभों के लिए आतंकवाद को जन्म दिया और आतंकवादियों को पाला-पोसा। पाकिस्तान अपने जन्म से ही एक अनाथ राष्ट्र रहा है, जिसे किसी ने भी स्थिर राजनीतिक-सामाजिक ढांचा देने की कोशिश नहीं की। जिन्ना कुछ दिन जीवित रहते तो शायद ऐसा कर पाते। उनके बाद तो राजनीतिज्ञों, फौजियों और मुल्लाओं की मनमानी ही पाकिस्तान की किस्मत बनाती-बिगाड़ती रही है। इसलिए आज एक राष्ट्र के रूप में वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। वह अपनी पूर्व-पश्चिम सीमा पर तालिबानियों के खिलाफ जो कार्रवाई कर रहा है, वह भले ही आतंकवाद के खिलाफ लग रही हो, लेकिन है वह खुद को बचाने की अंतिम कोशिश ही। उसमें उसे जितनी सफलता मिली है और जितनी मिलेगी, वह इसलिए कि वह अमेरिकी दबाव में, अमेरिका के साथ मिलकर की जा रही कार्रवाई है। उसके पीछे पाकिस्तानी समाज और फौज की दिली रजामंदी नहीं है। यही कारण है कि वह हमारी तरफ की सीमा पर की जा रही आतंकी कार्रवाइयों के बारे में न कुछ कर रहा है और न कुछ कह रहा है। बहुत संभव है कि यह सारी कसरत लिफाफा बदलने तक सीमित रह जाए।
और स्टोरीज़ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करे बांग्लादेश के भीतरी हालत का अंदाजा बांग्लादेश राइफल्स की हाल की बगावत से लगाया जा सकता है। वह किसी ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा मुल्क है। शेख हसीना अपनी कुर्सी पर भले ही हैं, देश की नब्ज उनके हाथ में नहीं है। हमारे पूर्वांचल के उल्फा आतंकी वहां पनाह लिए हुए हैं और भारत के प्रति एक खास किस्म की नफरत को हवा देते रहते हैं। नेपाल में अभी कौन सा तंत्र है, कहना कठिन है। माओवादियों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने से जो बड़ी संभावना पैदा हुई थी, वह बिखर चुकी है और वैकल्पिक सरकार के पास और जो कुछ भी हो, राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं है। दूसरी तरफ सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद प्रचंड व उनके लोगों के लिए भी पुरानी तरह की लड़ाई लड़ना संभव नहीं रह गया है। माओवादियों का वह पूरा राजनीतिक ढांचा एक ऐसा बम बन गया है जिसका पलीता खो गया है। इसलिए नेपाल में आज राजनीतिक जोड़तोड़ का दिशाहीन खेल चल रहा है। राष्ट्रीय विकास की जो थोड़ी-बहुत परियोजनाएं शुरू हुई थीं, वे सब भी ठिठक गई हैं। दूसरी तरफ नेपाल को चीन की तरफ ले जाने की (या चीन के नेपाल के भीतर आने की) स्थिति भी बनाई जा रही है। इनका मुकाबला करने के लिए भारत नेपाल के अंदरूनी मामलों में जिस तरह हस्तक्षेप करता रहा है, वह आज की स्थिति में अच्छी राजनयिक पहल का उदाहरण नहीं है और उसके नकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। हमारे नीचे का श्रीलंका तमिल टाइगर्स को हराकर जीता है या किसी अंधेरी गुफा में प्रवेश कर गया है, यह समय ही बताएगा। प्रभाकरन जैसों का सफाया कर देने के बाद जो सबसे बड़ी चुनौती है श्रीलंका के सामने, वह तमिल और सिंहली आबादी को यह अहसास कराने की है कि वे एक ही देश के नागरिक हैं। सरकारी खजाने की चमक और राजनीतिक चालबाजियों से जख्मजदा लोगों का विश्वास नहीं जीता जा सकता है, यह हमने देखा है। ऐसे पड़ोसियों से घिरे हम क्या इस सचाई को समझ पा रहे हैं कि दुनिया बदलती जा रही है? पड़ोसी होने, बड़ा होने, शक्तिशाली व समर्थ होने आदि के मतलब भी बदलते जा रहे हैं। छोटे से छोटे मुल्कों में अपनी गैरत का बोध बढ़ा है और उनके सामने विकल्प भी ज्यादा खुल गए हैं। अफगानिस्तान और इराक ने अमेरिका को जिस चक्रव्यूह में फंसा दिया है, वह भी हमें सावधान कर रहा है कि पड़ोसियों के साथ बराबरी के स्तर पर आकर व्यवहार करना होगा। उनका कोई भी संकट हमारे लिए अपनी रोटी सेंकने का अवसर नहीं है। अपनी विश्वसनीयता ऐसी बननी चाहिए कि हम उनकी जनाकांक्षा को समझते हैं, उसका सम्मान करते हैं और उसे पूरा करने में मददगार भी हैं। यह कोरी कूटनीतिक पहल नहीं होगी, इसे नागरिक स्तर पर भी अभिव्यक्त होना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी। अगर हम जी 8 के साथ बैठने लगे हैं, तो वहां का अजेंडा इन छोटे और आकार लेने में लगे राष्ट्रों के पक्ष में बदलना चाहिए। दैत्याकार अर्थव्यवस्थाओं के संकट का रोना रोने में भारत भी शामिल हो जाए, तो यह हमारे राष्ट्रीय हित के खिलाफ है। हमें जवाहरलाल नेहरू की उस ऐतिहासिक समझ को आगे बढ़ाना होगा, जिसमें उन्होंने एशियाई मामलों से महाशक्तियों को दूर रखने की अथक कोशिश की थी। इसलिए चीन की तरफ दरवाजा खोलने की पहल भी उन्होंने की थी, वह कोशिश विफल हुई, लेकिन निरर्थक नहीं हुई है। वैश्विकरण की आज की आंधी में यह और भी जरूरी हो गया है कि हम अपना विश्व तय करें और उसे पुख्ता करें, और जब हम ऐसा करना चाहेंगे, तब हमें यह सचाई पहचाननी व स्वीकारनी होगी कि कोई भी दुनिया अपने पड़ोस से ही शुरू होती है। पड़ोसी ही है जो हमारे सबसे पास होता है और सबसे पहले पहुंचता है। वह कैसा है, यह हमें समझना ही चाहिए, लेकिन वह हमारे अनुकूल कैसे बने, इसकी सावधान कोशिश भी हर स्तर पर करनी चाहिए। आज की दुनिया में सबसे मजबूत, सुरक्षित और संपन्न देश वह है, जो अपने अनुकूल पड़ोसियों के साथ जीता है। भारत की विदेश नीति में सदाशयता जितनी बढ़ेगी, वह पड़ोसियों को साथ व पास लाने में उतना ही समर्थ होगा।
और स्टोरीज़ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करे बांग्लादेश के भीतरी हालत का अंदाजा बांग्लादेश राइफल्स की हाल की बगावत से लगाया जा सकता है। वह किसी ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा मुल्क है। शेख हसीना अपनी कुर्सी पर भले ही हैं, देश की नब्ज उनके हाथ में नहीं है। हमारे पूर्वांचल के उल्फा आतंकी वहां पनाह लिए हुए हैं और भारत के प्रति एक खास किस्म की नफरत को हवा देते रहते हैं। नेपाल में अभी कौन सा तंत्र है, कहना कठिन है। माओवादियों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने से जो बड़ी संभावना पैदा हुई थी, वह बिखर चुकी है और वैकल्पिक सरकार के पास और जो कुछ भी हो, राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं है। दूसरी तरफ सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद प्रचंड व उनके लोगों के लिए भी पुरानी तरह की लड़ाई लड़ना संभव नहीं रह गया है। माओवादियों का वह पूरा राजनीतिक ढांचा एक ऐसा बम बन गया है जिसका पलीता खो गया है। इसलिए नेपाल में आज राजनीतिक जोड़तोड़ का दिशाहीन खेल चल रहा है। राष्ट्रीय विकास की जो थोड़ी-बहुत परियोजनाएं शुरू हुई थीं, वे सब भी ठिठक गई हैं। दूसरी तरफ नेपाल को चीन की तरफ ले जाने की (या चीन के नेपाल के भीतर आने की) स्थिति भी बनाई जा रही है। इनका मुकाबला करने के लिए भारत नेपाल के अंदरूनी मामलों में जिस तरह हस्तक्षेप करता रहा है, वह आज की स्थिति में अच्छी राजनयिक पहल का उदाहरण नहीं है और उसके नकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। हमारे नीचे का श्रीलंका तमिल टाइगर्स को हराकर जीता है या किसी अंधेरी गुफा में प्रवेश कर गया है, यह समय ही बताएगा। प्रभाकरन जैसों का सफाया कर देने के बाद जो सबसे बड़ी चुनौती है श्रीलंका के सामने, वह तमिल और सिंहली आबादी को यह अहसास कराने की है कि वे एक ही देश के नागरिक हैं। सरकारी खजाने की चमक और राजनीतिक चालबाजियों से जख्मजदा लोगों का विश्वास नहीं जीता जा सकता है, यह हमने देखा है। ऐसे पड़ोसियों से घिरे हम क्या इस सचाई को समझ पा रहे हैं कि दुनिया बदलती जा रही है? पड़ोसी होने, बड़ा होने, शक्तिशाली व समर्थ होने आदि के मतलब भी बदलते जा रहे हैं। छोटे से छोटे मुल्कों में अपनी गैरत का बोध बढ़ा है और उनके सामने विकल्प भी ज्यादा खुल गए हैं। अफगानिस्तान और इराक ने अमेरिका को जिस चक्रव्यूह में फंसा दिया है, वह भी हमें सावधान कर रहा है कि पड़ोसियों के साथ बराबरी के स्तर पर आकर व्यवहार करना होगा। उनका कोई भी संकट हमारे लिए अपनी रोटी सेंकने का अवसर नहीं है। अपनी विश्वसनीयता ऐसी बननी चाहिए कि हम उनकी जनाकांक्षा को समझते हैं, उसका सम्मान करते हैं और उसे पूरा करने में मददगार भी हैं। यह कोरी कूटनीतिक पहल नहीं होगी, इसे नागरिक स्तर पर भी अभिव्यक्त होना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी। अगर हम जी 8 के साथ बैठने लगे हैं, तो वहां का अजेंडा इन छोटे और आकार लेने में लगे राष्ट्रों के पक्ष में बदलना चाहिए। दैत्याकार अर्थव्यवस्थाओं के संकट का रोना रोने में भारत भी शामिल हो जाए, तो यह हमारे राष्ट्रीय हित के खिलाफ है। हमें जवाहरलाल नेहरू की उस ऐतिहासिक समझ को आगे बढ़ाना होगा, जिसमें उन्होंने एशियाई मामलों से महाशक्तियों को दूर रखने की अथक कोशिश की थी। इसलिए चीन की तरफ दरवाजा खोलने की पहल भी उन्होंने की थी, वह कोशिश विफल हुई, लेकिन निरर्थक नहीं हुई है। वैश्विकरण की आज की आंधी में यह और भी जरूरी हो गया है कि हम अपना विश्व तय करें और उसे पुख्ता करें, और जब हम ऐसा करना चाहेंगे, तब हमें यह सचाई पहचाननी व स्वीकारनी होगी कि कोई भी दुनिया अपने पड़ोस से ही शुरू होती है। पड़ोसी ही है जो हमारे सबसे पास होता है और सबसे पहले पहुंचता है। वह कैसा है, यह हमें समझना ही चाहिए, लेकिन वह हमारे अनुकूल कैसे बने, इसकी सावधान कोशिश भी हर स्तर पर करनी चाहिए। आज की दुनिया में सबसे मजबूत, सुरक्षित और संपन्न देश वह है, जो अपने अनुकूल पड़ोसियों के साथ जीता है। भारत की विदेश नीति में सदाशयता जितनी बढ़ेगी, वह पड़ोसियों को साथ व पास लाने में उतना ही समर्थ होगा।
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