Sunday 7 February 2010

नक्सलवाद को आतँकवाद के चश्मेँ से ना देँखे!

केन्द्र सरकार ने ये स्पष्ट कर दिया है कि नक्सलवाद और आतँकवाद से सख्ती से निपटा जायेगा! गृहमँत्री ने इन दोनोँ को ही आँतरिक सुरक्षा के लिये बडा खतरा बताया है! गौर करने वाली बात ये है कि दोनोँ समस्याओँ को एक ही चश्मेँ से देखा जा रहा है! जानकार ये जानते हैँ कि इस बयान मेँ कुछ भी नया नहीँ है! इस तरह के बयान आये दिन जारी हो रहे हैँ! हमारे नीति निर्माता ये बात क्योँ नहीँ समझते कि बयानोँ से समस्याएँ खत्म नहीँ होती! सँसद पर हमले से लेकर 26/11 तक आतँकवाद से सख्ती से निपटने के कितने बयान जारी हुए? लेकिन यहाँ मैँ बात सिर्फ नक्सलवाद की करना चाहूँगाँ! कभी हमारे नीति निर्माताओँ ने इस बात पर विचार नहीँ किया कि बँगाल के नक्सलवाडी से शुरु हुआ एक छोटा सा आँदोलन देश की आँतरिक सुरक्षा के लिये इतना बडा खतरा कैसे बन गया कि आज सरकार आतँकवाद से भी पहले नक्सलवाद के सफाये की बात कर रही है! इससे भी बडा सवाल ये है कि क्या नक्सलवाद को ताकत के बल पर खत्म किया जा सकता है? नक्सलवाद को चँबल के दस्यु समस्या की तर्ज़ पर खत्म करने को तैयार बैठी हमारी सरकार ये नहीँ समझ पा रही कि नक्सली चँबल के डाकू नहीँ हैँ जो एक बार खत्म हो गये तो हमेशा के लिये आतँक का खात्मा हो जायेगा! दरासल ये एक विचारधारा है! आपने दस नक्सली मारे तो व्यवस्था से आक्रोशित सौ नौजवान नक्सलवाद की राह पकड लेँगे! तब आप क्या करेँगे? कितनोँ को मारेँगे? कितना खून बहायेँगे? लेकिन अगर आपने नक्सली विचारधारा को खत्म कर दिया तो कोई नौजवान सुनहरा भविष्य छोड कर क्योँ बँदूक उठायेगा भला? ये बात सौ फीसदी सच है कि आदिवसियोँ के साथ लँबे समय से अन्याय होता आया है! आदिवासी समाज बहुत ही भोला और सीधा होता है! लेकिन पूँजीपतियोँ ने इनके इस भोलेपन का फायदा उठाया है! मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के आदिवासी गाँवोँ की दुर्दशा देख कर कोई भी इस बात का सहज ही अँदाजा लगा सकता है कि आदिवासियोँ के साथ किस हद तक छ्ल हुआ है! आदिवासियोँ के कल्याण के लिये सरकार की तरफ से अरबोँ रुपयोँ की योजनायेँ सिर्फ कागज़ोँ पर ही कार्याँवित हुई हैँ! यानि गरीब आदिवासियोँ का हक भ्रष्ट व्यवस्था की बलि चढ गया! यहाँ तक कि उनकी ज़मीनेँ भी हडॅप ली गई! जँगल पर उनहेँ अधिकार की बात आज़ादी के पाँच दशकोँ तक नहीँ हुई! इसी व्यवस्था के प्रति आक्रोश ने ही नक्सलवाद को जन्म दिया है! दरअसल हम हर चीज़ का इलाज एलोपौथी से करना चाहते हैँ! हम बीमारी को मिटाना चाहते हैँ उसके कारण तक पहुँचने की कोशिश ही नहीँ करते! नक्सलवाद का इलाज एलोपैथी नहीँ होम्योपैथी है! इस समस्या के कारण को समझ कर उन कारणोँ का इलाज करना होगा जो इस समस्या को बढावा दे रहे हैँ! सतही बातेँ करने से कुछ नहीँ होगा! ना दोषारोपण करने से कुछ होने वाला है! हम कश्मीर मेँ होम्योपैथिक इलाज कर रहे हैँ! जहाँ एलोपैथिक ट्रीतमेँट की ज़रुरत है! आदिवासी हमारे अपने हैँ! हमेँ नहीँ भूलना चाहिये “आदिवासी विद्रोह” जिसने उस वक्त अँग्रेजोँ को चुनौती दी थी जब सारा देश उनकी ताकत के आगे हथियार डाल चुका था!
वोट बैँक की राजनीति मेँ आदिवासी वर्ग कहीँ पीछे रह गया! आज झूठे एसटी सर्टिफिकेट के दम पर कईँ लोग उँचे सरकारी ओहदोँ पर बैठे हैँ! इससे अँदाज़ा लगायाअ जा सकता है कि हमारी व्यवस्था ने आदिवासियोँ को किस हद तक छ्ला है! सच्चे आदिवासी तो दो वक्त की रोटी को मोहताज हैँ! वो अपने जँगलोँ से और अपनी ज़मीनोँ से बेदखल कर दिये गये हैँ! आप रेलवे की पटरियोँ की मरमत्त का काम करते आदिवासी परिवारोँ को अकसर देखते होँगे! पिताजी की पोस्टिँग आदिवासी इलाकोँ मेँ होने के कारण उन लोगोँ की दुख तकलीफोँ को नज़दीक से देखा है मैँने! इसके बाद जब टीवी पत्रकारिता की शुरुआत की तो आँध्र प्रदेश मेँ काम करने का मौका मिला! जो आदिवासी बहुल इलाका है! हैदराबाद मेँ रह कर छत्तीसगढ के लिये जब बुलेटिन बनाये तो समझ आया छत्तीसगढ मेँ क्योँ पनप रहा है नक्सलवाद ? सलवा-जुडुम के नाम पर गरीब आदिवासियोँ का लहू बहते देखा! तो दिमाग मेँ बिजली सी कौँध गई! जब नक्सलियोँ से निपटने मेँ राज्य की पुलिस ने हाथ खडे कर दिये तो सरकार ने भोले-भाले आदिवासियोँ के हाथोँ मेँ ही बँदूक थमा दी! इसके बाद आये दिन आदिवासियोँ के साथ खूनी सँगर्ष की खबरेँ आने लगी! सलवा जुडुम कार्यकर्ताओँ को नक्सली चुन-चुन कर निशाना बना रहे थे! किसी को हाथ पैर बाँध कर गोली मार दी जाती थी, तो किसी को गाँव की चौपाल पर लटका दिया जाता था! सरकार और पुलिस मूक दर्शक बनी सब देख रही थी! आदिवासियोँ की सुरक्षा करने के बजाये उसने आदिवासियोँ के हाथोँ मेँ बँदूकेँ थमा दी थीँ! हमारे चैनल यानि ईटीवी के सिवाय कोई मीडिया इसकी रिपोर्टिँग नहीँ कर रहा था! क्योँकि दँतेवाडा, बस्तर, के ये इलाके नक्सलियोँ का गढ थे! और इतने इँटीरियर मेँ थे कि किसी भी राष्ट्रीय चैनल का नेटॅवर्क वहाँ तक नहीँ था! आपको ये जान कर हैरानी होगी कि बहुसँख्यक आदिवासी नक्सलियोँ के खिलाफ थे! इसीलिये वे सलवाजुडुम का समर्थन कर रहे थे! जबकि इस आँदोलन मेँ निर्दोष आदिवासी अकारण ही मारे जा रहे थे! अब भी वो विज़वल आँखोँ के सामने घूम रहे हैँ जब आये दिन दँतेवाडा और बस्तर के जँगलोँ मेँ हज़ारोँ आदिवासी स्वप्रेरणा से जुटते थे और नक्सलवाद के खिलाफ एकजुट होने का सँकल्प लेते थे! इनमेँ बच्चे बूढे और जवान सभी लोग थे! सलवा जुडुम और छत्तीसगढ के विकास को लेकर जब मैँने छत्तीसगढ के मुख्यमँत्री रमन सिँह से सवाल किये थे तो मुख्यमँत्री नहीँ बता पाये कि आदिवासियोँ के कल्याण के नाम पर बना आदिवासी राज्य छत्तीसगढ नक्सलवाद का गढ क्योँ बन गया? कमोबेश यही स्थिति झारखँड की भी है! आदिवासियोँ के कल्याण के नाम पर अलग राज्य बना कर भी अगर आप उनहेँ मूलभूत सुविधायेँ भी नहीँ दे सकते तो इसका सीधा सा मतलब ये है कि आपकी मँशा सही नहीँ है! शोषण से ही आक्रोष पांपता है आप शोषण रोक दीजिये आक्रोष स्वत: खत्म हो जायेगा! सलवाजुडुम का समर्थन करने वाला आदिवासी समाज कभी व्यवस्था का विरोधी था ही नहीँ! लेकिन व्यवस्था ने कभी उसकी मदद करने की इमानदार कोशिश नहीँ की! अब यदि उससे नाराज़ होकर कुछ लोगोँ ने हथियार उठा लिये तो उनसे मुकाबला करने के लिये गरीब आदिवासियोँ को हथियार देकर किनारा कर लेना और फिर उनकी मौत का तमाशा देखना क्या सही ठहराया जा सकता है? क्योँ नहीँ हमारी सरकारेँ आदिवासी इलाकोँ मेँ विकास कार्योँ पर ज़ोर देती है? क्योँ नहीँ वहाँ बिजली, पानी, सडक, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधायेँ मुहैया करवाती है? क्योँ नहीँ वहाँ ग्राम न्यायालय स्थापित किये जाते और आदिवासियोँ का शोषण करने वालोँ को कडे दण्ड दिये जांते ? सच है आज लोकतँत्र से ज्यादा जरुरत गुड गवर्नेँस की है!

2 comments:

Rajesh R. Singh said...

आदिवासी समाज बहुत ही भोला और सीधा होता है! लेकिन पूँजीपतियोँ ने इनके इस भोलेपन का फायदा उठाया है! मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के आदिवासी गाँवोँ की दुर्दशा देख कर कोई भी इस बात का सहज ही अँदाजा लगा सकता है कि आदिवासियोँ के साथ किस हद तक छ्ल हुआ है! आदिवासियोँ के कल्याण के लिये सरकार की तरफ से अरबोँ रुपयोँ की योजनायेँ सिर्फ कागज़ोँ पर ही कार्याँवित हुई हैँ! यानि गरीब आदिवासियोँ का हक भ्रष्ट व्यवस्था की बलि चढ गया! यहाँ तक कि उनकी ज़मीनेँ भी हडॅप ली गई! जँगल पर उनहेँ अधिकार की बात आज़ादी के पाँच दशकोँ तक नहीँ हुई.............! वाकई आँखें खोलने वाला लेख है

L.R.Gandhi said...

जो लोग कश्मीर में पाक का झंडा उठाये फिरते है उन्हें प्रति व्यक्ति दस हज़ार वार्षिक केंद्रीय मदद दी जाती है और बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश को यही ८०० रुपये । वैसे भी केंद्रे की योजनाओं का ९०% पैसा तो भ्रष्ट नेताओं - बिचोलिओं की जेब में ही चला जाता है, यह तो राजीव ने भी माना था। जब तक यह पैसा गरीब तक नहीं पहुचता तब तक यह समस्या बढ़ेगी ही.