Saturday 5 June 2010

एक छत्तीसगढिया का दर्द: दिल्ली से योगेश गुलाटी

कभी कभी हैरानी होती है कि कुछ लोग अपने निहित स्वार्थों के लिये कैसे आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी विनाशकारी विचारधाराओं का समर्थन कर सकते हैं! वो कैसे निर्दोषों और मासूमों की हत्याओं को सही ठहरा सकते हैं? अरुंधति राय से मेरी मुलाकात इंदौर में हुई थी जब वो नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटाकर के साथ विदेशीयों का हुजूम लेकर इंदौर की सडकों पर प्रदर्शन कर रही थीं! उस वक्त मैंने उनसे पूछा था कि आदिवासियों के हित की लडाई में आपने इतने विदेशियों को साथ क्यों लाई हैं? उस वक्त उन्होंने कहा था, "ये विरोध का गांधीवादी तरीका है और मैं इसकी समर्थक हूं!"
उस वक्त गांधीवाद की समर्थक रही मशहूर लेखिका अरुंधति अब नक्सलवाद की समर्थक हो गई हैं! उनका कहना है कि विरोध का गांधीवादी तरीका बहुत पुराना पड चुका है! बकौल अरुंधति "इसके लिये दर्शकों की ज़रूरत होती है जो आदिवासी इलाकों में नहीं मिलते!" उनका कहना है कि अगर मुझे जेल भी भेज दिया जाये तब भी मैं माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष का समर्थन करती रहूंगी! एक विद्वान समझी जाने वाली लेखिका अचानक ही सशस्त्र संघर्ष की बात करने लगे तो इसमें कोई गहरा रहस्य तो ज़रूर होगा, जिसे समझने की ज़रूरत है! अरुंधति के इस बयान पर कोई बवाल नहीं मचा है! शायद ये पहली बार है कि देश दुनिया में सम्मानित कही जाने वाली किसी हस्ति ने नक्सलवाद का इस तरह खुल कर समर्थन किया है! हमारे लिये खतरे की घंटी बज चुकी है! क्योंकि कल को विद्वानों की ही किसी जमात से उठ कर कोई महापुरुष आतंकवाद का भी समर्थन कर सकता है! अरुंधति वाकई में विदुषी महिला हैं शायद इसीलिये मासूमों के लहू से होली खेलने का वो समर्थन कर रही हैं! इसलिये अब उनकी विद्वता पर चर्चा का कोई औचित्य नहीं रह जाता! लेकिन ये साफ है कि आदिवासियों की असली आवाज़ को दबा कर और उनके हितचिंतक बनने का स्वांग रचकर कुछ लोग अपने स्वार्थ सिध्द करने में लगे हैं! सवाल ये है कि इन नक्सल प्रभावित इलाकों के निवासियों का दर्द क्या है? यहां मैं एक छत्तीसगढिया का दर्द उसी के शब्दों में बयां करना चाहता हूं,

"मैं ज्यादा दूर की बात नहीं करता। छत्तीसगढ़ प्रदेश का बेटा हूं, इसी की बात करता हूं। यह सच है कि प्रदेश में नक्सली समस्या मुंह बांये खड़ी है, हर रोज कत्लेआम, कोहराम व दहशत का आलम बना हुआ है। नक्सली कहर बरपा रहे हैं, गृहमंत्री अब केन्द्र से सेना भेजेंगे और नक्सलियों का खात्मा होगा। लेकिन जब से मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ विभाजन हुआ है केन्द्र से प्रदेश के विकास के लिए करोड़ों की योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया, लेकिन यह चिंतनीय विषय है कि क्या सच में छत्तीसगढ़िया का विकास हुआ है। आज भी छत्तीसगढ़िया अपनी उपेक्षा, शोषण, सरकारी दमनकारी नीति के बोझ तले दबे होने का दंश झेल रहा है। दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज है। यह भी प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि एक भी ऐसा समाचार पत्र नहीं है जो छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाशित होता हो। विभाजन के बाद लाखों की संख्या में सरकारी अधिकारी-कर्मचारी शरणार्थियों व खानाबदोशों की तरह जीवन यापन कर रहे हैं। सरहदों के परिवर्तन के साथ ही उनकी जाति का भी परिवर्तन हो गया और वे अनुसूचित जाति से ओबीसी, ओबीसी से अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जनजाति से सामान्य के दर्जे में शामिल हो गए हैं। उन्हें प्रदेश में किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिल पा रहा है। भ्रष्टाचारियों को प्रोत्साहन और ईमानदारों को सजा देना यहां की सरकारों की नीयति बन गयी है। सरकार की विकासकारी नीतियों का लाभ उन्हें ही मिल पा रहा है जो आर्थिक रूप संपन्न हैं और बाहरी मुल्कों से आकर छत्तीसगढ़ में अपना एकाधिपत्य स्थापित कर चुके हैं, पर छत्तीसगढ़िया अभी भी अपनी उपेक्षा का दंश झेल रहा है।" राम मालवीय, रायपुर"
ऎसे में अगर नक्सली इन्हें बहकाने में कामयाब हो जायें और कोई ख्यातिमान लेखिका इस आग में अपनी रोटियां सेकने लगे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये!

1 comment:

girish pankaj said...

sundar vichar.aise hi vicharon se desh ki sukh-shanti bahal rahegi. isi disha me sochane ki zaroorat hai bhai. log hinsaa ke paksh me nazar aate hai. fir bhi virodh zaroori hai