"उठो तुम्हारे अधिकारों पर सबसे ज़्यादा मार पडी है,
पूंजीपतियों के दरवाज़े हाथ जोड सरकार खडी है,
कौन जायेगा हसते-हसते अब चढने को फांसी पर,
भगत सिंह को पैदा करने वाली भारत मां बीमार पडी है!"
क्या कानून वाकई अंधा होता है? क्या सच में उसे कुछ दिखाई नहीं देता? क्या अब वो गूंगा और बेहरा भी हो गया है? कानून की किताब का पहला पाठ "डिले डिनाय द जस्टिस" हमारे यहां लागू नहीं होता! हम लाख न्यायिक स्वतंत्रता की बात कर लें, अदालतों में एडियां रगड कर यहां लोगों की उम्र बीत जाती है! न्याय की आस दम तोड देती है! पीडित को न्याय अव्वल तो मिलता नहीं है और जब मिलता है तो देर हो चुकी होती है! ऎसे उदाहरणों से हमारी कानून की किताबें भरी पडी हैं जहां न्याय मिलने मे 25 से 50 बरस तक लग गये! जबकि विधी तत्काल न्याय की पैरवी करती है! कुछ मामलों में तो स्थिति आईने की तरह साफ होती है बावजूद इसके हमारे यहां कानून अपनी कछुआ चाल से काम करता है! 25 बरस बाद भोपाल गैंस कांड में आया नतीजा हमारी व्यवस्था के उपर सवाल खडे कर रहा है! इस फैसले ने हमारी व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है!
भोपाल आज भी पच्चीस साल पुरानी वो सुबह याद कर सिहर उठता है! उस भयानक हादसे के घाव भोपाल के सीने में दर्ज हैं! यूनियन कारबाईड इंडिया लिमिटेड के पेस्टिसाइड प्लांट से 1984 में 2 और 3 दिसंबर की दरमियानी रात ज़हरीली मिथाइल आईसोसाइनाइड गैस का रिसाव हुआ था! एक टैंक में 42 टन गैंस थी, जो सैफ्टी नियमों की तय सीमा से ज्यादा थी! टैंक में पानी घुसने से रिएक्शन हो गया ! इससे टैंक का तापमान बढा और गैस बाहर निकलने लगी! इसके बाद तो मानो भोपाल में कयामत आ गई थी! गैंस ने पूरे भोपाल शहर को अपनी चपेट में लेना शुरु कर दिया था! जहां जहां तक कयामत की उस रात को ये गैस पहुंची वहां वहां लाशों के ढेर लग गये! बीस हज़ार से ज़्यादा लोग उस रात की सुबह कभी देख नहीं पाये! लाशों की गिनती करने की ज़हमत भी सरकार ने नहीं उठाई! पांच लाख से ज़्यादा लोगों की ज़िंदगी इस हादसे के बाद मौत से भी बदतर हो गई! उन्हें गंभीर बीमारियां हो गईं! हज़ारों लोग अंधे हो गये! तो अनगिनत विकलांग! लेकिन भोपाल के लिये कयामत का ये सिलसिला वहीं नहीं थमा! क्योंकि इस शहर की आने वाली पीढियां भी इस हादसे के ज़ख्म लेकर विकलांग पैदा हुईं!
लेकिन यहां पीडितों के लिये इंसाफ की बात करना बेमानी सा लगता है! मानवता को हिला कर रख देने वाले इस भयानक हादसे के 25 सालों के बाद अदालत का फैसला आया है वो भी मानवता को उसी तरह झकझोर रहा है! सारी दुनिया इस फैसले के बाद हैरानी भरी निगाहों से भारत को देख रही है! क्योंकि सवाल उस व्यवस्था का है जिस पर हम गर्व करते नही थकते! इस फैसले के साथ ही एक बार फिर ये सवाल खडा हो गया है कि क्या हमारे देश में व्यवस्था पूंजीपतियों के हित में काम कर रही है?
ये सवाल इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ये फैसला सिविल न्यूक्लियर लिएबिलिटी बिल पर जारी बहस के बीच आया है! भोपाल गैंस कांड के लिये अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय इकाई पर पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया है! दोषी पाये गये कंपनी के सात अफसरों को अधिकतम दो-दो साल जेल की सज़ा मिली है और हर एक पर महज़ एक लाख का जुर्माना लगाया गया है! हैरानी की बात ये है कि अमेरिका में यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन के चेयरमेन वारेन एंडरसन के बारे में कोर्ट ने कुछ नहीं कहा! इस मामले में 4 दिसंबर 1984 को जो नौ लोग गिरफ्तार किये गये थे उसमें एंडरसन भी था! लेकिन उसे 2000 डालर के मुचलके पर जमानत पर छोड दिया गया था! कानून मंत्री वीरप्पा मोईली भी मानते हैं कि इस मामले में ना केवल न्याय को दफना दिया गया है! लेकिन सवाल ये है कि इसके लिये ज़िम्मेदार कौन है?
क्या हमारी सरकार भी ये स्वीकार कर रही है कि हमारा तंत्र पूंजीपतियों के हित में काम कर रहा है? इस हादसे के लिये प्रमुख ज़िम्मेदार वारेन एंड्रसन 90 साल का हो चुका है! उसके प्रत्यर्पण की तमाम कोशिशें नाकाम रही हैं! और बाकी अभियुक्त जिन्हें दोषी पाया गया है वो भी हादसे के 25 सालों के बाद अपना पूरा जीवन जी चुके हैं! लेकिन हादसे के शिकार उन मासूमों का क्या जिन्हें ज़िंदगी शुरुआत से पहले ही ज़िंदगी से बेदखल कर दिया गया!
इस मामले ने हमारे पूरे सिस्टम को बेनकब कर दिया है! भोपाल गैंस कांड को लेकर सरकार और उसकी एजेंसीयों ने जिस तरह से काम किया है, उससे ये साफ हो जाता है कि हमारी व्यवस्था पूंजीपतियों के सामने नतमस्तक नज़र आती है! और उन्हीं के हितों के लिये काम करती है! इसमें समाज के कमज़ोर तबकों के लिये कोई जगह नहीं है! कारोबार के लिये आई विदेशी कंपनीयों के लिये हम इतने उदार हो जाते हैं कि उनकी हर ज़्यादती को अनदेखा कर देते हैं! और उनपर कार्रवाई की बात करने पर हमारी सरकार के हाथ-पांव फूलने लगते हैं! अगर हमारी सरकार ने शुरु से मुस्तैदी दिखाई होती तो आज दुनिया भर में हमारी जग हसाई ना हो रही होती!
इससे दुनिया को ये संदेश गया है कि भारत अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर कितना लापरवाह देश है! और वहां नागरिकों की जान की कोई कीमत नहीं! ये बात आतंकवाद के खिलाफ हमारी खोखली लडाई से भी साबित होती है! क्योंकि लगातार होते आतंकी हमलों के बीच ना तो हम अपने ही देश में पनप रहे आतंक के नेटवर्क का सफाया कर सके हैं ना ही नक्सलवाद को समाप्त कर सके हैं! खोखली व्यवस्था को साथ लेकर हम एक मजबूत राष्ट्र होने का सपना कभी साकार नहीं कर सकते! इस मामले में भी व्यवस्था का खोखलापन मामले के अभियुक्त एंडरसन को भारत लाने में नाकाम रहा! हमारी सरकार पीडितों के लिये मुआवज़ा मांगने अमेरिकी अदालत तो गई, लेकिन समझौता अदालत से बाहर ही कर आई! यूनियन कार्बाइड केवल 47 लाख डालर देने को राज़ी हुई और सरकार ने बेजिझक उसे मान भी लिया! हादसे के बाद भी सरकार ने इससे कोई सबक नहीं सीखा! हमारी इसी कमज़ोरी का फायदा उठाकर कईं विदेशी कंपनियों ने भारत को डंपिंग ग्राउंड बना डाला है! वो दुनिया भर में नकार दी गई वस्तुएं भारत के बाज़ारों में धडल्ले से बेच रही हैं! अपने नागरिकों की जान-माल की परवाह ना करने वाली व्यवस्था कभी भी ज़िम्मेदार नहीं हो सकती! ज़रूरत है ऎसी गैर ज़िम्मेदार व्यवस्था को बदल दिया जाये जो पूंजीपतियों के सम्मुख नतमस्तक हो जाती हो! जो व्यवस्था 125 करोड की आबादी को सारी दुनिया के सामने शर्मिंदा कर दे ऎसी व्यवस्था किस काम की?
3 comments:
योगेश भाई,
अगर सरकार सो रही है तो हम कौन से जाग रहे हैं...इतने श्रमसाध्य और विचारपरक लेख पर अब तक एक भी टिप्पणी न आने से बात साफ़ हो जाती है...
जय हिंद...
भूखे भेड़ियों के आगे डाल दिया है आम आदमी को नेता और अफसरों ने. और क्यों न डालें जब ये खुद भी उद्योगपति हैं या उनके उद्योगों के शेयरहोल्डर...
खुशदीप भाई सहमत हूं आपकी बात से! चाहे कितना भी गलत हो रहा हो, हम लोग "सब चलता है" वाली मानसिकता में जी रहे हैं! अन्याय के खिलाफ लडने का माद्दा नहीं है तो कम से कम इसके खिलाफ अपना विरोध तो दर्ज करा ही सकते हैं! यकीन मानिये ये विरोध ही लोकतंत्र की असली ताकत है!
Post a Comment