Wednesday 26 October 2011

हंगामा क्यों है बरपा ?

Yogesh gulati
पानी सर के ऊपर से गुजर रहा है. छुरी अब अपनी ही गर्दन पर आ टिकी है. इसलिए अब इस भस्मासुर से निपटने की कवायद तेज़ हो चली है. हंगामा इस बात को लेकर है कि  न्यूज़ चैनल सरकार को अस्थिर कर रहे हैं. हल्ला मचा है कि  मीडिया अपनी आजादी का दुरुपयोग कर रहा है. और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उल-झलूल कार्यक्रम दिखाकर देश और समाज को गुमराह कर रहा है. नौकरशाहों से लेकर सरकार तक इस बात पर मंथन कर रही है कि शीला कैसे जवान हुई और मुन्नी कैसे बदनाम हो गयी? सरकार को चिंता इस बात को लेकर होने लगी है कि, इस बात का खबरों से क्या  ताल्लुक है?

कुछ लोगों के लिए ये एक अच्छा संकेत हो सकता है कि देर से ही सही हमारी सरकार नींद से जागी तो सही. और उसने सरकारी बाबुओं को इस 'भस्मासुर' पर लगाम कसने का फरमान भी जारी कर ही दिया. अब मंत्रालय में बैठ कर सरकारी बाबू न्यूज़ चैनलों पर नकेल कसने के लिए रणनीति तैयार कर रहे हैं. ये रणनीति कितनी कारगर होगी इसका पहला परीक्षण यूपी के चुनावों के दौरान हो जाएगा. नयी गाइडलाइन्स लगभग तैयार हो चुकी है. अब कार्यक्रम और विज्ञापन सहिंता के उल्लंघन का दोषी पाए जाने पर चैनल का लाइसेंस भी रद्द हो सकता है. यानि सरकार चैनलों पर तलवार लटकाने की पूरी तैयारी कर चुकी है.

दिलचस्प बात ये है कि जिस कार्यक्रम और विज्ञापन सहिंता की बात सरकार कर रही है उसकी जानकारी न्यूज़ चैनलों में काम करने वाले बहुत कम पत्रकारों को ही है. उनमें से भी बिरले ही केबल टीवी रेग्यूलेशन एक्ट-१९९५ की थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं. दिलचस्प बात ये भी है कि विज्ञापन सहिंता के मुताबिक एक घंटे के टीवी प्रोग्राम में १२ मिनट से ज़्यादा का कमर्शियल नहीं दिखाया जा सकता है. लेकिन कुछ न्यूज़ चैनल्स तो ३२ मिनट के विज्ञापन एक घंटे के प्रोग्राम में दिखाते हैं.
क्या हमारे नौकरशाहों को इस बात का इल्म नहीं है? ये बात हैरानी वाली हो सकती है कि न्यूज़ चैनल में काम करने वाले एडिटर्स को उस आचार सहिंता के बारे में कभी बताया ही नहीं जाता जिसका उल्लंघन होने पर चैनल का लाइसेंस तक रद्द किया जा सकता है. चैनल मालिकों को भी इस बात की चिंता कभी नहीं रही कि उनके चैनल पर दिखाए जा रहे प्रोग्राम कहीं आचार सहिंता का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं?  शायद यही कारण है कि खबरों पर लौटने के दावे करने वाले न्यूज़ चैनल्स बेधड़क आपत्तिजनक प्रोग्राम्स दिखा रहे हैं.

सा इसलिए क्योंकि टीआरपी की रेस में धड़ल्ले से इस आचार सहिंता का उल्लंघन होने के बावजूद मंत्रालय में बैठे हमारे सरकारी बाबूओं के कानों पर जून तक नहीं रेंगी. तो फिर इन कर्मठ बाबुओं की नींद अब कैसे टूट गयी? अब कैसे जाग गए हमारे नौकरशाह और क्यों उन्हें मीडिया पर लगाम कसने की इतनी जल्दी है? सरकार की जल्दबाजी इस बात से भी जाहिर होती है कि नई गाइडलाइन्स में ये भी जोड़ा गया है कि न्यूज़ चैनल्स के ज़रिये सरकार को 'अस्थिर' करने के प्रयास किए जा रहे हैं. यानि जब भस्मासुर ने शिव के सर पर हाथ रखने के लिए हाथ आगे बढाया तो शिव को इस बात का एहसास हो गया कि वो भस्मासुर को 'वरदान' देकर कितनी बड़ी भूल कर बैठे हैं. अचम्भा इस बात को लेकर है कि जब ये भस्मासुर समाज को निगल रहा था, यही भस्मासुर जब देश के मानस को जड़ता में तब्दील कर रहा था, यही भस्मासुर जब अंधविश्वास का तांडव रच रहा था तब शिव मुस्कुरा रहे थे? तब क्यों नहीं जागे शिव?

ब क्यों सोती रही हमारी सरकार जब यही मीडिया 'नागमणि' के किस्से ख़बरों में परोस रहा था, उस वक्त कहाँ थे हमारे विद्वान सरकारी बाबू जब किसी पंडित कुंजीलाल ने अपनी मौत की भविष्यवाणी की थी और देश भर के न्यूज़ चैनल्स ने मध्यप्रदेश के उस छोटे से गाँव को 'पीपली लाइव' में तब्दील कर दिया था. जब एलियंस धरती पर आकर आतंक मचा रहे थे, और दुनिया ख़त्म होने वाली थी. जब माया सभ्यता की भविष्यवाणियाँ चैनलों पर हेडलाइन बन रही थी, उस वक्त क्या कर रहा था हमारा सूचना और प्रसारण मंत्रालय जब छज्जे पर बिल्ली और मेंढक की शादी सबसे तेज़ कहे जाने वाले नॅशनल  न्यूज़ चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ बन रही थी. जादू-टोना, भूत-प्रेत, ज्योतिष, अंधविश्वास और दुनिया ख़त्म होने की भविष्यवाणियों के बीच पब्लिक बेचारी कन्फ्यूज़ हो रही थी.
   
गौर करने वाली बात ये है कि शीला रातों-रात ही जवान नहीं हो गयी? ना ही मुन्नी एक ही दिन में बदनाम हो गयी. इसके लिए शीला और मुन्नी ने बहुत पापड़ बेले हैं. राखी और मिका का वो किस-काण्ड, शीला और मुन्नी को आज इस मुकाम तक ले आया है. इसमें प्रोफ़ेसर बटुकनाथ और जूली की प्रेम कहानी ने भी अमूल्य योगदान दिया है. अब सवाल ये है कि जब ये सब रातों-रात नहीं हुआ. तो सरकार को अचानक इसकी इतनी फ़िक्र कैसे हो गयी. कैसे हमारे सरकारी बाबू अब आचार सहिंता के उल्लंघन पर लासेंस रद्द करने की बात कर रहे हैं? ये सब हुआ अन्ना के आन्दोलन की वजह से. जब अन्ना के आन्दोलन की खबरों की टीआरपी आनी शुरू हुई तो टीआरपी के लिए कुछ भी करने वाले न्यूज़ चैनलों ने २४ घंटे टीम अन्ना के कवरेज़ के लिए रिपोर्टर लगा दिए. इसका असर भी हुआ और जिन चैनलों ने अन्ना के आन्दोलन का कवरेज़ दिखाया उनकी टीआरपी में भारी उछल आ गया. जिसके चलते बाकी चैनल्स को भी अपनी गिरती टीआरपी संभालने के लिए अन्ना का कवरेज़ दिखाना मजबूरी बन गया. लेकिन इस आन्दोलन के  24x7 प्रसारण ने सरकार को बेचैन कर दिया. क्योंकि महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान जनता में सरकार के खिलाफ आक्रोश पैदा होने लगा था. और ये आक्रोश इस आन्दोलन को देख कर भड़क उठा. जनता में ये आम राय बनाने लगे थी कि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार और महंगाई पर लगाम कसने की बजाय उसे बढ़ावा दे रही है. वहीँ न्यूज़ चैनल्स के विश्लेषक-विद्वान भी मनमोहन सिंह को कमज़ोर पीएम के रूप में प्रचारित करने में लगे थे. ऐसा माहौल बन गया था मानो इस देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री संसद से निकलती रही है और कांग्रेस ही उसकी जननी है. बात यहीं तक रहती तो भी ठीक था.... लेकिन अब बात उससे भी आगे बढ़ चुकी थी और सोनिया और राहुल पर भी निशाना साधा जाने लगा था. ऐसे में सरकार का हरकत में आना ज़रूरी हो गया था.

यानि जब छुरी अपनी गर्दन पर आ गयी तो हमारी सरकार की नीद टूट ही गयी और उसे इस बात का एहसास हो गया कि पथभ्रष्ट मीडिया
सरकार को अस्थिर भी कर सकता है. इससे ये तो साफ़ हो जाता है कि सरकार को भी जनता और सारोकार से कोई मतलब नहीं है. उसे सिर्फ सत्ता से ही प्यार है. इसीलिये राखी से लेकर जूली तक और फिर शीला और मुन्नी के जवान और बदनाम होने के तमाम किस्सों-कहानियों और नाग-मणियों तक सरकार सोती रही. जब न्यूज़ चैनलों पर दुनिया ख़त्म होने की भविष्यवाणियाँ खबरों के रूप में परोसी जा रही थी, तब भी सरकार सोती रही. उसकी नींद तो केवल तब खुली जब उसकी सत्ता को महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण चुनौती मिलाने लगी. जब तक शीला और मुन्नी महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों से सरकार को बचाए हुए थी और खबरों के नाम पर जनता का मनोरंजन कर रही थी, तब तक सरकार को उनसे कोई शिकायत नहीं थी. लेकिन जब वो इस काम में नाकामयाब होने लगी तो सकरारी बाबुओं को आचार सहिंता की याद आ गयी. सच्चाई ये है कि सरकारी बाबू ये चाहते हैं कि शीला और मुन्नी खबरों के नाम पर भोली जनता को बहलाती रहे ताकि आम जनता की समस्याओं, महंगाई, भ्रष्टाचार, और घोटालों की तरफ लोगों का ध्यान ना जाए. महंगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसी बड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए क़ानून जन आकांशाओं के अनुरूप नहीं बल्कि कुछ जन प्रतिनिधियों की मर्जी के मुताबिक़ बने. मतलब साफ़ है, हमारे नेताओं की मंशा यही है कि सत्ता में आने के बाद सरकार को अपनी मर्जी से काम करने की पूरी छूट मिले चाहे इसके एवज़ में संवैधानिक मर्यादाओं का ही हनन क्यों ना होता रहे.

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