Saturday 25 July 2009

वह कश्मीर से अपने जले घर की लकड़ी के टुकड़े लेकर आया


राजेंद्र तिवारी
Editor, Bhaskar websites

कश्मीर हम सबके लिए बहुत भावनात्मक मसला है। कश्मीर की बात चलती है तो हम इतना भावुक हो उठते हैं कि बाकी सब भूल जाते हैं। इतने गहन भावनात्मक जुड़ाव वाले मसले पर सब लोग अपने-अपने अनुभव, कहानियां और विचार शेयर करें तो सभी पक्षों के साथ एक संपूर्ण तस्वीर सामने आएगी हम सबके दिल-दिमाग में बसे कश्मीर की। जम्मू-कश्मीर के हर चप्पे में मार्मिक कहानियां सांस ले रही हैं। हर कोई इन कहानियों का मर्म अपनी सोच-धारणा के हिसाब से निकाल सकता है। मुझे एक सच्ची कहानी याद आ रही है एक कश्मीरी पंडित बच्चे की जो कश्मीर से विस्थापित माता-पिता के साथ जम्मू में रहता था। उसके मां-बाप 1990-91 में कश्मीर से भागकर जम्मू आए थे। यह बच्चा उस समय मां की गोद में था। पिता उसे अनंतनाग स्थिति अपने मकान और खेतों के बारे में लगातार बताते रहते थे। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। अपने पिता के बचपन, दक्षिणी कश्मीर खासतौर पर अनंतनाग जिले का विवरण उसे आकर्षित करता था। जब वह 10 साल का हुआ तबसे उसने अनंतनाग जिले के अपने मकान को देखने की जिद शुरू की। पिता उसे किसी न किसी बहाने टालते रहते थे। वह बच्चा अपने मां-पिता और रिश्तेदारों से अपने मूल स्थान (दक्षिणी कश्मीर) से जुड़े किस्से सुनते-सुनते 7वीं कक्षा में गया। वह अपनी जमीन छूना चाहता था, अपने मकान को देखना चाहता था, वहां के चश्मों के पानी से खेलना चाहता था। कच्चे अखरोट से अपने हाथों पर कलाकारी करना चाहता था (कच्चा अखरोट घिसने पर लाल रंग छोड़ता है और यदि आप उसे हाथ पर घिसें तो लगता है जैसे मेंहदी लगा ली हो)। धीरे-धीरे उसका धैर्य जवाब देने लगा या यह कहें कि जन्मभूमि का आकर्षण धैर्य पर भारी पड़ना शुरू हो गया। एक दिन वह रोजाना की तरह घर से स्कूल के लिए निकला। जेब में अपनी बचत के सारे पैसे (करीब 250 रु.) लेकर। उसने तय कर लिया था कि आज वह अपने पुश्तैनी घर जाएगा जरूर। काफी देर तक वह जम्मू के बसअड्डे पर बैठा रहा। करीब 11 बजे उसने अपना इरादा और हिम्मत और पक्की की, बैठ गया अनंतनाग जाने वाली बस में। बस्ता साथ में था और उसमें लंच बाक्स। उसने पता कर लिया था कि अनंतनाग से कहां की बस पकड़नी होगी। शाम को बस अनंतनाग पहुंची। वहां से उसने अपने गांव जाने वाली बस पकड़ ली। आखिरी बस थी सो 15-20 यात्री ही उसमें थे। उधर, जम्मू में जब बच्चा शाम को घर नहीं पहुंचा तो माता-पिता चिंतित हुए। स्कूल से पता किया तो पता चला कि वह बच्चा तो आज स्कूल ही नहीं गया। पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। फिर मां-बाप ने सोचा, अखबारों में इश्तहार भी दें दें। तो वे हमारे अखबार के दफ्तर भी आए। वहां गांव वाली बस में एक व्यक्ति ने उस अकेले बच्चे को देखा तो उत्सुकतावश पूछ लिया कहां जाना है। बच्चे ने गांव का नाम बताया। उस व्यक्ति को बच्चे की शक्ल अपने उस पड़ोसी से मिलती-जुलती लगी जो 1991 में गांव छोड़कर चले गए थे। व्यक्ति ने बच्चे से पिता का नाम पूछा तो कनफर्म हो गया कि उन्हीं का बच्चा है। उस व्यक्ति ने पूछा बेटा अकेले क्यों आए। तो बच्चे ने वजह बता दी। वह व्यक्ति बच्चे को अपने साथ ले गया अपने घर। सुबह उसने जम्मू फोन करके बताया कि बच्चा उनके पास घर में है, वे चिंता न करें और यहां आकर बच्चे को ले जाएं। बच्चा जब लौटकर जम्मू आया तो अपने साथ लाया था अपने जले घर में बच गई लकड़ी के टुकड़े, थोड़ी सी मिट्टी और कुछ अखरोट !

1 comment:

Unknown said...

साम्प्रदायिक पोस्ट लिखते हैं आप…। इस्लाम शान्ति का धर्म है…। :)